Saturday, 7 April 2018

Biography of most important persons

अब्राहम लिंकन की जीवनी

अमेरिका के 16 वाँ राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का जन्म 12 फरवरी, 1809 को केंटकी (अमेरिका) में हुआ था। उनका पूरा नाम अब्राहम थॉमस लिंकन था उनके पिता एक किसान थे। वह एक साल तक भी स्कूल नहीं गए लेकिन खुद ही पढ़ना लिखना सिखा और वकील बने। एक सफल वकील बनने से पहले उन्होंने विभिन्न प्रकार की नौकरियों की और धीरे – धीरे राजनीति की ओर मुड़े। उस समय देश में गुलामी की प्रथा की समस्याओं चल रही थी। गोरे लोग दक्षिणी राज्यों के बड़े खेतों के स्वामी थे, और वह अफ्रीका से काले लोगो को अपने खेत में काम करने के लिए बुलाते थे और उन्हें दास के रूप में रखा जाता था। उत्तरी राज्यों के लोग गुलामी की इस प्रथा के खिलाफ थे और इसे समाप्त करना चाहते हैं अमेरिका का संविधान आदमी की समानता पर आधारित है। इस मुश्किल समय में, अब्राहम लिंकन 1860 में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे।



वह गुलामी की समस्या को हल करना चाहते थे। दक्षिणी राज्यों के लोग गुलामी के उन्मूलन के खिलाफ थे। इससे देश की एकता में खतरे आ सकता है। दक्षिणी राज्य एक नए देश बनाने की तैयार कर रहा था। परन्तु अब्राहम लिंकन चाहता था की सभी राज्यों एकजुट हो कर रहे। अब्राहम लिंकन को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। वह किसी भी कीमत पर देश की एकता की रक्षा करना चाहते थे। अंत में उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच एक नागरिक युद्ध छिड़ गया। उन्होंने युद्ध बहादुरी से लड़ा और घोषणा की, ‘एक राष्ट्र आधा दास और आधा बिना दास नहीं रह सकता” वह युद्ध जीत गए और देश एकजुट रहा। 4 मार्च 1865 को अब्राहम लिंकन इनका दुसरी बार शपथ समारोह हुआ। शपथ समारोह होने के बाद लिंकन इन्होंने किया हुआ भाषण बहुत मशहूर हुआ। उस भाषण से बहुत लोगो के आख मे आसु आ गये। वह किसी के भी खिलाफ नहीं थे और चाहते थे की सब लोग शांति से जीवन बिताये।



1862 में लिंकन की घोषणा की थी अब सभी दास मुक्त होगे।। इसी से ही लिंकन लोगो के बीच लोकप्रिय रहा। अपनी जिंदगी मे कई बार असफलताओ का सामना करने वाले अब्राहम लिंकन आख़िरकार अमेरिका के एक सफल राष्ट्रपति बने थे। वे संयुक्त राज्य अमेरिका के ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने देश और समाज की भलाई के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया। लिंकन कभी भी धर्म के बारे में चर्चा नहीं करते थे और किसी चर्च से सम्बद्ध नहीं थे। एक बार उनके किसी मित्र ने उनसे उनके धार्मिक विचार के बारे में पूछा। लिंकन ने कहा – “बहुत पहले मैं इंडियाना में एक बूढ़े आदमी से मिला जो यह कहता था ‘जब मैं कुछ अच्छा करता हूँ तो अच्छा अनुभव करता हूँ और जब बुरा करता हूँ तो बुरा अनुभव करता हूँ’। यही मेरा धर्म है”।



मृत्यु -

14 अप्रैल 1865 को वॉशिंग्टन के एक नाट्यशाला मे नाटक देख रहे थे तभी ज़ॉन विल्किज बुथ नाम के युवक ने उनको गोली मारी। इस घटना के बाद दुसरे दिन मतलब 15 अप्रैल के सुबह अब्राहम लिंकन की मौत हुयी।



एक बार लिंकन और उनके एक सहयोगी वकील ने एक बार किसी मानसिक रोगी महिला की जमीन पर कब्जा करने वाले एक धूर्त आदमी को अदालत से सजा दिलवाई। मामला अदालत में केवल पंद्रह मिनट ही चला। सहयोगी वकील ने जीतने के बाद फीस में बँटवारकन ने उसे डपट दिया। सहयोगी वकील ने कहा कि उस महिला के भाई ने पूरी फीस चुका दी थी और सभी अदालत के निर्णय से प्रसन्न थे परन्तु लिंकन ने कहा – “लेकिन मैं खुश नहीं हूँ। वह पैसा एक बेचारी रोगी महिला का है और मैं ऐसा पैसा लेने के बजाय भूखे मरना पसंद करूँगा। तुम मेरी फीस की रकम उसे वापस कर दो।

अब्दुल कलाम की जीवनी

डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम एक प्रख्यात भारतीय वैज्ञानिक और भारत के 11वें राष्ट्रपति थे। उन्होंने देश के कुछ सबसे महत्वपूर्ण संगठनों (डीआरडीओ और इसरो) में कार्य किया। उन्होंने वर्ष 1998 के पोखरण द्वितीय परमाणु परिक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ कलाम भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और मिसाइल विकास कार्यक्रम के साथ भी जुड़े थे। इसी कारण उन्हें ‘मिसाइल मैन’ भी कहा जाता है। वर्ष 2002 में कलाम भारत के राष्ट्रपति चुने गए और 5 वर्ष की अवधि की सेवा के बाद, वह शिक्षण, लेखन, और सार्वजनिक सेवा में लौट आए। उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।



प्रारंभिक जीवन -

अवुल पकिर जैनुलअबिदीन अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम में एक मुसलमान परिवार मैं हुआ। उनके पिता जैनुलअबिदीन एक नाविक थे और उनकी माता अशिअम्मा एक गृहणी थीं। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थे इसलिए उन्हें छोटी उम्र से ही काम करना पड़ा। अपने पिता की आर्थिक मदद के लिए बालक कलाम स्कूल के बाद समाचार पत्र वितरण का कार्य करते थे। अपने स्कूल के दिनों में कलाम पढाई-लिखाई में सामान्य थे पर नयी चीज़ सीखने के लिए हमेशा तत्पर और तैयार रहते थे। उनके अन्दर सीखने की भूख थी और वो पढाई पर घंटो ध्यान देते थे। उन्होंने अपनी स्कूल की पढाई रामनाथपुरम स्च्वार्त्ज़ मैट्रिकुलेशन स्कूल से पूरी की और उसके बाद तिरूचिरापल्ली के सेंट जोसेफ्स कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ से उन्होंने सन 1954 में भौतिक विज्ञान में स्नातक किया। उसके बाद वर्ष 1955 में वो मद्रास चले गए जहाँ से उन्होंने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1960 में कलाम ने मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की।



कैरियर -

मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग की पढाई पूरी करने के बाद कलाम ने रक्षा अनुसन्धान और विकास संगठन (डीआरडीओ) में वैज्ञानिक के तौर पर भर्ती हुए। कलाम ने अपने कैरियर की शुरुआत भारतीय सेना के लिए एक छोटे हेलीकाप्टर का डिजाईन बना कर किया। डीआरडीओ में कलाम को उनके काम से संतुष्टि नहीं मिल रही थी। कलाम पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा गठित ‘इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ के सदस्य भी थे। इस दौरान उन्हें प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के साथ कार्य करने का अवसर मिला। वर्ष 1969 में उनका स्थानांतरण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में हुआ। यहाँ वो भारत के सॅटॅलाइट लांच व्हीकल परियोजना के निदेशक के तौर पर नियुक्त किये गए थे। इसी परियोजना की सफलता के परिणामस्वरूप भारत का प्रथम उपग्रह ‘रोहिणी’ पृथ्वी की कक्षा में वर्ष 1980 में स्थापित किया गया। इसरो में शामिल होना कलाम के कैरियर का सबसे अहम मोड़ था और जब उन्होंने सॅटॅलाइट लांच व्हीकल परियोजना पर कार्य आरम्भ किया तब उन्हें लगा जैसे वो वही कार्य कर रहे हैं जिसमे उनका मन लगता है। 1963-64 के दौरान उन्होंने अमेरिका के अन्तरिक्ष संगठन नासा की भी यात्रा की।



परमाणु वैज्ञानिक राजा रमन्ना, जिनके देख-रेख में भारत ने पहला परमाणु परिक्षण किया, ने कलाम को वर्ष 1974 में पोखरण में परमाणु परिक्षण देखने के लिए भी बुलाया था। सत्तर और अस्सी के दशक में अपने कार्यों और सफलताओं से डॉ कलाम भारत में बहुत प्रसिद्द हो गए और देश के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में उनका नाम गिना जाने लगा। उनकी ख्याति इतनी बढ़ गयी थी की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपने कैबिनेट के मंजूरी के बिना ही उन्हें कुछ गुप्त परियोजनाओं पर कार्य करने की अनुमति दी थी। भारत सरकार ने महत्वाकांक्षी ‘इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम’ का प्रारम्भ डॉ कलाम के देख-रेख में किया। वह इस परियोजना के मुख कार्यकारी थे। इस परियोजना ने देश को अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलें दी है। जुलाई 1992 से लेकर दिसम्बर 1999 तक डॉ कलाम प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार और रक्षा अनुसन्धान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के सचिव थे।



भारत ने अपना दूसरा परमाणु परिक्षण इसी दौरान किया था। उन्होंने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आर. चिदंबरम के साथ डॉ कलाम इस परियोजना के समन्वयक थे। इस दौरान मिले मीडिया कवरेज ने उन्हें देश का सबसे बड़ा परमाणु वैज्ञानिक बना दिया। वर्ष 1998 में डॉ कलाम ने ह्रदय चिकित्सक सोमा राजू के साथ मिलकर एक कम कीमत का ‘कोरोनरी स्टेंट’ का विकास किया। इसे ‘कलाम-राजू स्टेंट’ का नाम दिया गया।



भारत के राष्ट्रपति -

एक रक्षा वैज्ञानिक के तौर पर उनकी उपलब्धियों और प्रसिद्धि के मद्देनज़र एन.डी.ए. की गठबंधन सरकार ने उन्हें वर्ष 2002 में राष्ट्रपति पद का उमीदवार बनाया। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी लक्ष्मी सहगल को भारी अंतर से पराजित किया और 25 जुलाई 2002 को भारत के 11वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लिया। डॉ कलाम देश के ऐसे तीसरे राष्ट्रपति थे जिन्हें राष्ट्रपति बनने से पहले ही भारत रत्न ने नवाजा जा चुका था। इससे पहले डॉ राधाकृष्णन और डॉ जाकिर हुसैन को राष्ट्रपति बनने से पहले ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया जा चुका था। उनके कार्यकाल के दौरान उन्हें ‘जनता का राष्ट्रपति’ कहा गया। अपने कार्यकाल की समाप्ति पर उन्होंने दूसरे कार्यकाल की भी इच्छा जताई पर राजनैतिक पार्टियों में एक राय की कमी होने के कारण उन्होंने ये विचार त्याग दिया। 12वें राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल के समाप्ति के समय एक बार फिर उनका नाम अगले संभावित राष्ट्रपति के रूप में चर्चा में था परन्तु आम सहमति नहीं होने के कारण उन्होंने अपनी उमीद्वारी का विचार त्याग दिया।



राष्ट्रपति पद से सेवामुक्त होने के बाद का समय -

राष्ट्रपति पद से सेवामुक्त होने के बाद डॉ कलाम शिक्षण, लेखन, मार्गदर्शन और शोध जैसे कार्यों में व्यस्त रहे और भारतीय प्रबंधन संस्थान, शिल्लोंग, भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद, भारतीय प्रबंधन संस्थान, इंदौर, जैसे संस्थानों से विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जुड़े रहे। इसके अलावा वह भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर के फेलो, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी, थिरुवनन्थपुरम, के चांसलर, अन्ना यूनिवर्सिटी, चेन्नई, में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर भी रहे। उन्होंने आई। आई। आई। टी। हैदराबाद, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और अन्ना यूनिवर्सिटी में सूचना प्रौद्योगिकी भी पढाया था। कलाम हमेशा से देश के युवाओं और उनके भविष्य को बेहतर बनाने के बारे में बातें करते थे। इसी सम्बन्ध में उन्होंने देश के युवाओं के लिए “व्हाट कैन आई गिव’ पहल की शुरुआत भी की जिसका उद्देश्य भ्रष्टाचार का सफाया है। देश के युवाओं में उनकी लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें 2 बार (2003 & 2004) ‘एम.टी.वी. यूथ आइकॉन ऑफ़ द इयर अवार्ड’ के लिए मनोनित भी किया गया था। वर्ष 2011 में प्रदर्शित हुई हिंदी फिल्म ‘आई ऍम कलाम’ उनके जीवन से प्रभावित है। शिक्षण के अलावा डॉ कलाम ने कई पुस्तकें भी लिखी जिनमे प्रमुख हैं – ‘इंडिया 2020: अ विज़न फॉर द न्यू मिलेनियम’, ‘विंग्स ऑफ़ फायर: ऐन ऑटोबायोग्राफी’, ‘इग्नाइटेड माइंडस: अनलीशिंग द पॉवर विदिन इंडिया’, ‘मिशन इंडिया’, ‘इंडोमिटेबल स्पिरिट’ आदि।



पुरस्कार और सम्मान -

देश और समाज के लिए किये गए उनके कार्यों के लिए, डॉ कलाम को अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। लगभग 40 विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि दी और भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया।



मृत्यु -

27 जुलाई 2015 को भारतीय प्रबंधन संस्थान, शिल्लोंग, में अध्यापन कार्य के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा जिसके बाद करोड़ों लोगों के प्रिय और चहेते डॉ अब्दुल कलाम परलोक सिधार गए।

अमिताभ बच्चन की जीवनी

अमिताभ बच्चन का जन्म अक्टूबर 11, 1942 को उतरप्रदेश के जिले इलाहबाद में हिन्दू परिवार में हुआ और इनके बचपन का नाम “इन्कलाब” था जो बाद में बदल कर अमिताभ रख दिया गया। ‘इन्कलाब’ नाम जो है वो आजादी की लड़ाई में इस्तेमाल होने वाले नारे ‘ इन्कलाब जिंदाबाद‘ से प्रेरित था। अमिताभ नाम का मतलब होता है “ ऐसा दीपक जो कभी नहीं बुझे “। अमिताभ के पिता हरिवंश राय बच्चन जो खुद एक महशूर हिन्दी के कवि थे और उनकी माता तेजी बच्चन जो कराची से वास्ता रखती है ने ही उन्हें स्टेज की दुनिया में आने के प्रेरित किया। वैसे आपके जानने लायक एक दिलचस्प बात और भी है कि अमिताभ का उपनाम श्रीवास्तव है लेकिन इनके पिता ने अपनी रचनाओं को बच्चन नाम से प्रकशित करवाया जिसके कारण उसके बाद पूरे परिवार के साथ यह नाम जुड़ गया।



करियर और फिल्म इंडस्ट्री –

शुरू में अमिताभ के लिए चीजे आसान थी क्योंकि इन्हें फिल्मो की दुनिया में आने के लिए किसी भी तरह की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा और इसकी वजह है अमिताभ बच्चन की राजीव गाँधी से मित्रता होना क्योंकि इसी वजह से इंदिरा गाँधी के हाथ का लिखा सिफारिशी ख़त की वजह से उन्हें के ए अब्बास की फिल्म “ सात हिन्दुस्तानी “ में आराम से काम करने का मौका मिल गया। वैसे हम यह कह सकते है कि ऐसा तो है कि अमिताभ ने अपने टैलेंट और अभिनय के दम पर इंडस्ट्री में बादशाह का मुकाम हासिल किया हो या किसी और भी पैमाने पर अमिताभ बच्चन को हम महान कह सकते है लेकिन एक बात तो है जितनी आसानी से अमिताभ को बॉलीवुड में काम मिला वो भी इंदिरा गाँधी के सिफारिशी ख़त की वजह से तो मेरे गले से अमिताभ को महान कहने की बात गले नहीं उतरती है क्योंकि अगर हम रणवीर सिंह (Ranveer singh) जैसे सितारों की बात करें तो मुझे तो उनके सरीखें सितारे ही महान लगते है आज के समय में जिन्होंने एक संघर्ष के बाद सितारा बनने का मुकाम हासिल किया है। हालाँकि अमिताभ ने फिल्मो में दुनिया में अपना हाथ अजमाने से पहले एक शिपिंग कम्पनी में नौकरी की थी और बाद में इनके माँ के द्वारा उत्साहित करने के बाद ये नौकरी छोडके मुंबई आ गये थे। वंहा इन्हें काम करने के लिए 800/- रूपये / महीना वेतन मिलता था।



शिक्षा –

अमिताभ बॉलीवुड के उन अभिनेताओं में भी है जिन्होंने अच्छी खासी पढाई करी है क्योंकि बॉयज हाई स्कूल में पढाई के बाद इन्होने शेरवूड कॉलेज जो नैनीताल में है से आर्ट में अपनी ग्रेजुएशन की हुई है साथ ही इसके बाद विज्ञानं में स्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए दिल्ली के प्रसिद्द KMC कॉलेज से पढाई की और इसके बाद MA के लिए ज्ञान प्रबोधिनी कॉलेज जो इलाहाबाद में है से की।



सफलता के लिए संघर्ष –

वैसे अमिताभ को भले ही फिल्मो में आने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा लेकिन बाद के दिनों में चीजे इनके लिए मुश्किल थी और यही वजह है कि न केवल अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म ने कोई अच्छा प्रदर्शन कमाई के हिसाब से नहीं किया लेकिन इस फिल्म में इनकी भूमिका के लिए इन्हें “ सर्वश्रेष्ठ नवागन्तुक अभिनेता“ के लिए पुरस्कार मिला और इसके बाद करीब सात साल तक के अपने संघर्ष में इन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली और तब तक ऐसा कहा जाता है कि वो निर्माता और निर्देशक महमूद साहब के घर में रुके।



स्टार बनने –

अमिताभ बच्चन की जिन्दगी में स्टार बनने के लिए महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 1973 में आई प्रकाश मेहरा की एक फिल्म में इन्हें एक इंस्पेक्टर का रोल मिला जिसमे इनके किरदार का नाम “ इंस्पेक्टर खन्ना“ था और उस किरदार में अमिताभ बच्चन एकदम अलग तरह के रोल में थे और साथ ही इनकी भारी आवाज जिसके लिए इन्हें आल इंडिया रेडियो में बोलने वाले के पद के लिए निकाल दिया गया था वही इनकी खासियत भी बनी ऐसे में जनता के लिए अमिताभ का यह रूप बहुत पसंद आने वाला था और इसके बाद बॉलीवुड के एक्शन हीरो और “ अंगरी यंगमैन“ की रूप में एक नई छवि अमिताभ की जनता के बीच में बनी जिसने इन्हें बेहद लोकप्रिय बना दिया। यह वही साल था जिसमे अमिताभ ने जय भादुड़ी से शादी करी और कह सकते है कि अमिताभ के साथ अब उनका ‘लेडी लक’ भी था क्योंकि इसी साल अमिताभ बच्चन ने जया के साथ 3 जून को बंगाली संस्कार से विवाह भी किया था।



लाइफ चेंजिंग इवेंट्स –

1976 से लेकर 1984 तक अमिताभ को अपनी कई सारी कामयाब फिल्मो की वजह से बहुत सारे पुरस्कार भी मिले जिसमे उनकी बेहद कामयाब दीवार और शोले जैसी फिल्म भी है शोले तो बॉलीवुड के इतिहास में सबसे कामयाब फिल्मो में से एक है। यही एक वजह है कि अमिताभ फिल्म इंडस्ट्री के सबसे कामयाब और पहचान वाले अभिनेता और सबसे अधिक फिल्मफेयर अवार्ड्स पाने वाले अभिनेताओ में से एक है और साथ ही आपको बता कि अमिताभ ने अब तक तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और बारह सर्वश्रेष्ठ फिल्म अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार शामिल है और एक तरह से यह रिकॉर्ड है। 1984-1987 तक संसद के निर्वाचित सदस्य के रूप में भी इन्होने अपनी भूमिका दी है असल में 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद अपने दोस्त राजीव गाँधी की सलाह पर वो राजनीती में उतरे और इलाहाबाद की लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और राजनीती के चाणक्य कहे जाने वाले हेमवती नंदन बहुगुणा को हर दिया लेकिन कुछ समय बाद ही यानि राजनीति में आने के तीन साल बाद ही अमिताभ बच्चन ने राजनीती को अलविदा कह दिया।



अमिताभ बच्चन ने एक्टिंग के अलावा भी पार्श्वगायक के रूप में भी अपना योगदान दिया है साथ ही एक अच्छे विज्ञापन करता के रूप में भी अमिताभ की पहचान बनी हुई है और उम्र के इस दौर में भी जब वो 73 साल के हो चुके है अभी भी सक्रिय है। ‘कौन बनेगा करोडपति ‘ शो में भी इन्होने होस्ट के तौर पर काम किया है और अमिताभ बच्चन को पसंद करने वाले करोडो में है। अमिताभ ने 12 से अधिक फिल्मो में डबल रोल किया है और एक फिल्म “ महान “ के लिए तो उन्होंने triple role भी किया है। आज के दिन में अमिताभ के पास एक खास मुकाम है और इसी वजह से इन्हें फ़्रांस के एक शहर द्युविले की मानद नागरिकता भी इनके योगदान को देखकर मिली है जो किसी भी विदेशी नागरिक के लिए न केवल सम्मान की बात है बल्कि बहुत ही दुर्लभ लोगो के पास ये है क्योंकि यह केवल ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के पास और पहली बार अंतरिक्ष में प्रवेश करने वाले रूसी अंतरिक्ष यात्री यूरी गागारिन तथा पोप जॉन पॉल द्वितीय को ही दिया गया है।



बच्चों और परिवार –

अमिताभ बच्चन की दो संताने है अभिषेक बच्चन और श्वेता नंदा बच्चन जिसमें से अभिषेक बच्चन भी खुद अभिनेता है और अभिषेक का विवाह ऐश्वर्या राय के साथ हुआ है जो बेहद खूबसूरत अभिनेत्री रह चुकी है और सलमान खान की एक्स – गर्लफ्रेंड भी रह चुकी है। हालाँकि एक्टिंग की दुनिया में अभिषेक का सिक्का जरुर नहीं चला लेकिन अगर लड़की के मामले में बात करें तो करोड़ो दिलो को धड़कन रह चुकी ऐश्वर्या को अपने हमसफ़र के रूप में पाने वाले अभिषेक बच्चन बेइंतिहा लकी है।



लव लाइफ और अफेयर्स 

अमिताभ के अफेयर्स की बात करें तो सन 1978 में अमिताभ और रेखा की बीच बढती नजदीकियों को लेकर न केवल अमिताभ के घर में बहुत हंगामा हुआ बल्कि देशभर के अख़बारों में भी यह सुर्खियाँ बनती जा रही थी इस बारे में सुना गया है कि रेखा दिल ही दिल में अमिताभ बच्चन को बहुत पसंद करती थी लेकिन उन्होंने सही तरीके से कभी इसे जाहिर नहीं किया और न ही अमिताभ ने इस रिश्ते के बारे में कभी कुछ कहा जिसकी वजह से मामला रहस्मयी होता गया और शायद इसी वजह से जय ने रेखा को इस बारे में बात करने के लिए डिनर पर बुलाया था।



सामाजिक रूप से सक्रिय –

अमिताभ बच्चन सोशल साइट्स पर भी काफी एक्टिव रहते है और अपने फेंस के साथ जुड़े रहने के लिए ब्लॉग और फेसबुक और ट्विटर पर भी काफी सक्रिय रहते है। अमिताभ बच्चन के बारे में शिवसेना प्रमुख रह चुके स्वर्गीय बाल ठाकरे यंहा तक कह चुके है कि अमिताभ के योगदान को देखते हुए उन्हें भारत रत्न देना तो बनता है क्योंकि ऐसे भी देश है जंहा लोग भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बारे में नहीं जानते लेकिन वो अमिताभ बच्चन को जानते है ऐसे में उन्हें भारत रत्न दिया जाना सही है साथ ही यह बात भी गौर करने लायक है कि उन्होंने यह बात ऐसे समय में कही थी जब महाराष्ट्र में मराठी बनाम उतर भारतीय विवाद चल रहा था।

सचिन तेंदुलकर की जीवनी

सचिन तेंदुलकर ने समय के साथ रनों का अम्बार लगा दिया है। उन्होंने 29 जून, 2007 को दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध बेलाफास्ट (आयरलैंड) में खेलते हुए एक दिवसीय मैचों में 15000 रन पूरे कर लिए। इतने रन बनाने के बाद सचिन। विश्व के ऐसे प्रथम खिलाड़ी बन गए, जिंन्होंने इतने बड़े आंकड़े को छुआ है। विश्व के श्रेष्ठतम बल्लेबाज माने जाने वाले आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज डॉन ब्रैडमैन ने एक बार सचिन के बारे में कहा था- ”मैंने उसे टीवी पर खेलते हुए देखा और उसकी खेल तकनीक देखकर दंग रह गया। तब मैंने अपनी पत्नी को अपने पास बुला कर उसे देखने को कहा। हालांकि मैंने स्वयं को खेलते हुए कभी नही देखा, लेकिन मुझे महसूस होता है कि यह खिलाड़ी ठीक वैसा ही खेलता है जैसा मैं खेलता था।” वास्तव में सचिन क्रिकेट का हीरो और एक ऐसा रोल मॉडल है जिसे सभी भारतीय पसन्द करते हैं। कल की सी बात लगती है जब सचिन तेंदुलकर क्रिकेट क्षेत्र में उतरा-एक घुंघराले बालों वाला 15 वर्षीय सचिन, जिसकी भर्राई सी आवाज ने लोगों के दिल में स्थान बना लिया।



वह लगभग 15 वर्ष का ही था जब उसने 1988 में स्कूल के क्रिकेट मैच में काम्बली के साथ 664 रन बनाए थे। लोग उसके खेल का करिश्माई अंदाज़ देखते ही रह गए थे। इसके बाद उसका क्रिकेट के मैदान में अन्तरराष्ट्रीय मैचों में प्रदर्शन इतना अच्छा रहा है कि लोग कहते हैं कि वह वाकई लाजवाब है। सचिन तेंदुलकर ने 1989-90 में कराची में पाकिस्तान के विरुद्ध अपना पहला टैस्ट मैच खेल कर अपने क्रिकेट कैरियर की शुरुआत की थी। तब से अब तक के कैरियर में सचिन ने उन ऊंचाइयों को छू लिया है, जिसे छूना किसी अन्य क्रिकेट खिलाड़ी के लिए शायद ही सम्भव हो सके। आक्रामक बल्लेबाजी उसका अंदाज है। उसका बल्ला यूं घूमता है कि दर्शकों को अचम्भित कर देता है। यदि वह जल्दी आउट भी हो जाता है तो भी अक्सर अपना करिश्मा दिखा ही जाता है। गेंदबाजी में भी वह अपना करिश्मा कभी-कभी दिखा देता है। एक दिवसीय मैचों में दस हजार से अधिक रन बनाने वाला वह पहला बल्लेबाज है। उसने सौ से अधिक विकेट लेने का करिश्मा भी दर्शकों को दिखाया है। सचिन ने दर्शकों के मानस पटल पर अपने खेल की अविस्मरणीय छाप छोड़ी है।



उसने 20 टैस्टों और एक दिवसीय मैचों में अनेकों शतक व हजारों रन बना डाले हैं जितने आज तक कोई नहीं बना सका है। जब सचिन केवल 11 वर्ष का था, तब वह बेहद शैतान था। मां-बाप को वह अपनी शैतानियों से परेशान करता रहता था। एक बार वह शैतानी करते हुए पेड़ से गिर गया। तब सचिन के बड़े भाई अजीत के दिमाग में विचार आया कि उसे क्रिकेट की कोचिंग क्लास के लिए भेज दिया जाए ताकि उसकी अतिरिक्त ऊर्जा खेलों में खर्च हो सके। कहा जा सकता है कि यह सचिन की अतिविशिष्ट जिन्दगी की शुरुआत थी। आज सचिन 100 टैस्ट मैच खेलने वाला विश्व का 17वां खिलाड़ी बन चुका है। सचिन ने 1989 में पाकिस्तान के विरुद्ध प्रथम अन्तरराष्ट्रीय मैच खेला था। तब सचिन केवल 16 वर्ष का था और प्रथम पारी में वह बहुत ही नर्वस व घबराया हुआ था। सचिन को तब यूं महसूस हुआ था कि शायद वह जिन्दगी में आगे अन्तरराष्ट्रीय मैच और नहीं खेल सकेगा। अकरम और वकार की तेज गेंदों के सामने वह केवल 15 रन ही बना सका था। लेकिन दूसरे टेस्ट में जब उसे खेलने का मौका मिला तब उसने 59 रन बना लिए और उसके भीतर आत्मविश्वास जाग उठा। सचिन देखने में सीधा-सादा इंसान है। वह अति प्रसिद्ध हो जाने पर भी नम्र स्वभाव का है। वह अपने अच्छे व्यवहार का श्रेय अपने पिता को देता है। उसका कहना है- ”मैं जो कुछ भी हूं अपने पिता के कारण हूँ। उन्होंने मुझ में सादगी और ईमानदारी के गुण भर दिए हैं। वह मराठी साहित्य के शिक्षक थे और हमेशा समझाते थे कि जिन्दगी को बहुत गम्भीरता से जीना चाहिए। जब उन्हें अहसास हुआ कि शिक्षा नहीं, क्रिकेट मेरे जीवन का हिस्सा बनने वाली है, उन्होंने उस बात का बुरा नहीं माना। उन्होंने मुझसे कहा कि ईमानदारी से खेलो और अपना स्तर अच्छे से अच्छा बनाए रखो। मेहनत से कभी मत घबराओ।” सचिन को भारतीय क्रिकेट टीम का कैप्टन बनाया गया था, परन्तु 2000 में उन्होंने मोहम्मद अजहरूद्‌दीन के आने के बाद वह पद छोड़ दिया।



सचिन, जिसे सुपर स्टार कहा जाता है, जीनियस कहा जाता है, जिसका एह-एक स्ट्रोक महत्त्वपूर्ण माना जाता है, अपने पुराने मित्रों को आज भी नहीं भूला है चाहे वह विनोद काम्बली हो या संजय मांजरेकर। जब मुम्बई की टीम में सचिन ने खेलना आरम्भ किया था तो संजय ने राष्ट्रीय टीम की ओर से खेला था। ये दोनों पुराने मित्र हैं। क्रिकेट के अतिरिक्त सचिन को संगीत सुनना और फिल्में देखना पसन्द है। सचिन क्रिकेट को अपनी जिन्दगी और अपना खून मानते हैं। क्रिकेट के कारण प्रसिद्धि पा जाने पर वह किस चीज का आनन्द नहीं ले पाते-यह पूछने पर वह कहते हैं कि दोस्तों के साथ टेनिस की गेंद से क्रिकेट खेलना याद आता है। 29 वर्ष और 134 दिन की उम्र में सचिन ने अपना 100वां टैस्ट इंग्लैण्ड के खिलाफ खेला। 5 सितम्बर, 2002 को ओवल में खेले गए इस मैच से सचिन 100वां टैस्ट खेलने वाला सबसे कम उम्र का खिलाड़ी बन गया। सचिन के क्रिकेट खेल की औपचारिक शुरुआत तभी हो गई जब 12 वर्ष की उम्र में क्लब क्रिकेट (कांगा लीग) के लिए उसने खेला। सचिन बड़ी-बड़ी कम्पनियों का ब्रांड एम्बेसडर बना है। एम. आर. एफ. टायर, पेप्सी, एडिडास, वीजा मास्टर कार्ड, फिएट पैलियो जैसी नामी कम्पनियों ने उसे अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया। बड़ी कम्पनियों में विज्ञापन के लिए उसकी सबसे ज्यादा मांग है। 1995 में सचिन ने 70 लाख पचास हजार (7.5 मिलियन) डालर का वर्ल्ड टेल कम्पनी के साथ 5 वर्षीय अनुबंध किया। इससे सचिन विश्व का सबसे धनी क्रिकेट खिलाड़ी बन गया। इसके पूर्व ब्रायनलारा ने ब्रिटेन की कम्पनी के साथ सर्वाधिक 10 लाख 20 हजार डॉलर का अनुबंध किया था। सचिन ने 2002 में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया।



अन्तरराष्ट्रीय मैचों में 20000 रन बनाने वाला वह एकमात्र खिलाड़ी बन गया है। उसने 102 टेस्ट मैचों में खेली गई 162 पारी में 8461 रन बनाने के अतिरिक्त 300 एक दिवसीय मैचों में 11544 रन बनाने का रिकार्ड स्थापित किया है। उसके बारे में कहा जाता है वह विवियन रिचर्ड, मार्क वा, ब्रायन लारा सब को मिलाकर एक है। तेंदुलकर मानो एक आदमी की सेना है। वह शतक बनाता है, उसे गेंद दे दो, वह विकेट ले लेता है, वह टीम के अच्छे फील्डरों में से एक है। हम भाग्यशाली हैं कि वह भारतीय हैं। 25 मई, 1995 को सचिन ने डाक्टर अंजलि मेहता से विवाह कर लिया। उनके दो बच्चे हैं। बड़ी बच्ची का नाम ‘सराह’ है जिसका अर्थ है कीमती। छोटा बच्चा बेटा है। सचिन की अंजलि से 1990 में मुलाकात हुई। सचिन ने एक बार इंटरव्यू में कहा था- ”मुझे उससे प्यार इसलिए हो गया क्योंकि उसके गाल गुलाबी हो उठते हैं।” सचिन का पूरा नाम सचिन रमेश तेंदुलकर है। उसका नाम उसके माता-पिता ने अपने पंसदीदा संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन के नाम पर रखा। सचिन ने अपना पहला साक्षात्कार दादर के एक ईरानी रेस्टोरेंट में अपने बड़े भाई से दिलवाया था क्योंकि तब उसमें अधिक आत्मविश्वास नहीं था। सचिन को बचपन में क्रिकेट से कोई विशेष लगाव न था। क्रिकेट में शामिल होने पर वह तेज गेंदबाज बनना चाहता था, इसलिए डेनिस लिली से प्रशिक्षण के लिए एम. आर. एफ. पेस एकेडमी में गया। तब उसे बताया गया कि उसे बल्लेबाजी पर ध्यान लगाना चाहिए। सचिन को अपनी मां के हाथ का भोजन बहुत पसन्द है विशेषकर सी-फूड। इस कारण उसके आने पर वह विशेष रूप से मछली मंगवाती है।



सचिन के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य -

मात्र बारह वर्ष की उम्र में सचिन ने क्लब क्रिक्रेट (कांगा लीग) मे खेलना शुरू किया।

बाम्बे स्कूल क्रिकेट टूर्नामेट में अपना पहला शतक 1936 में बनाया। फिर अगले वर्ष स्कूल क्रिकेट में 1200 रन बनाए जिनमें दो तिहरे शतक भी शामिल थे।

1988-89 में सचिन ने रणजी ट्राफी में बम्बई की तरफ से खेला और शतक बनाया। वह बम्बई की तरफ से खेलने वाला अब तक का सबसे कम उम्र का खिलाड़ी था। अगले वर्ष वह ईरानी ट्राफी के लिए टीम में शामिल हुआ और 103 रन बनाए। उसके पश्चात् दलीप ट्राफी में शामिल होने पर पश्चिमी जोन की ओर पूर्वी जोन के विरुद्ध 151 रन बनाए। इस प्रकार तीनों देशीय टूर्नामेंट में प्रथम बार भाग लेने पर शतक लगाने वाला प्रथम भारतीय खिलाड़ी बन गया।

जब सचिन और विनोद काम्बली ने मिल कर सेट जेवियर्स के विरुद्ध शारदाश्रम के 664 रन बनाए तब किसी भी क्रिकेट खेल के लिए यह विश्व रिकार्ड बन गया। इसमें सचिन ने 326 नाट आउट का स्कोर बनाया। फिर बाम्बे क्रिकेट की ओर से उसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ी घोषित किया गया।

1991 में 18 वर्ष की आयु में सचिन यार्कशायर का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रथम खिलाड़ी बना। उस वर्ष उसे ‘वर्ष का क्रिकेटर’ चुना गया।

1992 में वह पहला खिलाड़ी बना जिसे तीसरे अम्पायर द्वारा आउट करार दिया गया।

सचिन ने अपने खेल की शुरुआत से लगातार हर टैस्ट मैच खेला और लगातार 84 टैस्ट खेले।

सचिन 29 वर्ष 134 दिन की आयु में 100वां टैस्ट मैच खेलने वाला सबसे कम आयु का खिलाड़ी बना।

सचिन का पहला टैस्ट 1989 में कराची में हुआ जो कपिल का 100 वां टैस्ट मैच था।

जिन खिलाड़ियों ने 100 या अधिक टैस्ट मैच खेले हैं, उनमें सचिन का औसत सर्वाधिक है यानी 57।99। जब कि उसके बाद मियादाद का 57।57 है और गावस्कर का (51।12)।

‘राजीव गाधी खेल रत्न’ पुरस्कार पाने वाला वर्ष 2006 तक सचिन एकमात्र क्रिकेटर हैं।

1992 में 19 वर्ष की आयु में टैस्ट मैच में 1000 रन बनाने वाला सचिन विश्व का सबसे कम उम्र का खिलाड़ी है।

20 वर्ष की आयु से पूर्व टैस्ट मैच में 5 शतक बनाने वाला सचिन प्रथम व एकमात्र खिलाड़ी है।

सचिन ने अपना पहला टैस्ट शतक इंग्लैंड के विरुद्ध बनाया। तब उसने 119 रन बनाए और नॉट आउट रहा। पाकिस्तान के मुश्ताक मोहम्मद के बाद सचिन सबसे कम आयु का दूसरा खिलाड़ी है।

अक्टूबर 2002 में सचिन 20000 रन बना कर अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में इतने रन बनाने वाला विश्व का प्रथम बल्लेबाज बन गया।

जुलाई, 2002 में ‘विजडन’ (लन्दन) द्वारा सचिन को ‘पीपुल्स च्वाइस’ अवार्ड दिया गया।

सचिन दुनियां का सफलतम बल्लेबाज है। 10 दिसम्बर, 2005 को सचिन 38 शतकों के साथ वन डे में सर्वाधिक 13909 रन बनाने वाला खिलाड़ी बना।

अगस्त 2004 तक सचिन ने 69 अर्द्धशतक बनाकर पाकिस्तान के कप्तान इंजमाम उल-हक के एक दिवसीय मैचों में सर्वाधिक अर्द्धशतक की बराबरी कर ली। सचिन ने 339 मैचों में 69 अर्द्धशतक लगाए। जबकि इंजमाम ने 317 मैचों में 69 अर्धशतकशतक बनाए।

सचिन 38 शतक बनाकर विश्व रिकार्ड बना चुका है।

सचिन ने 339 मैचों में 13415 रन बना लिए और विश्व में एक दिवसीय मैचों में सर्वाधिक रन बनाने वाले खिलाड़ी बने, तब तक इजंमाम 317 मैचों में 9897 रन बनाकर रन बनाने के मामले में दूसरे नम्बर पर थे।

सचिन से पूर्व अजहरुद्दीन ने सर्वाधिक 334 एक दिवसीय मैच खेले थे। सचिन ने अगस्त 2004 तक 339 मैच खेल कर अजहरुद्दीन के रिकार्ड को पीछे छोड़ दिया और भारत का सर्वाधिक मैच खेलने वाला खिलाड़ी बन गया।

339 मैच खेलने के बाद भी सचिन विश्व में दूसरे नम्बर का खिलाड़ी है। विश्व का सर्वाधिक एक दिवसीय मैच खेलने वाला खिलाड़ी पाकिस्तान का पूर्व कप्तान वसीम अकरम है जिसने 356 मैच खेले।

50 बार वह ‘मैन ऑफ द मैच’ का पुरस्कार जीत चुका है। यह एक रिकार्ड है।

10 दिसम्बर 2005 को सचिन ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटल मैदान पर टैस्ट मैचों में सर्वाधिक शतक (34 शतक) बनाने का सुनील गावस्कर का रिकार्ड तोड़ दिया और अपना 35वां शतक श्रीलंका के खिलाफ बनाया। इस टेस्ट मैच में उसने गावस्कर के 125 टैस्ट खेलने के रिकार्ड की भी बराबरी की।

टेस्ट मैच में दस हजार से अधिक रन बनाने वाले सचिन सबसे युवा खिलाड़ी हैं।

विज्ञापनों की दुनिया का उन्हें बादशाह कहा जाता है। सारे रिकार्ड तोड़ते हुए 2006 में उन्होंने आइकोनिक्स से 6 वर्ष के लिए 180 करोड़ का अनुबंध किया। इससे पूर्व उन्होंने वर्ल्ड टेल के साथ 5 वर्ष का 100 करोड़ का अनुबंध किया था।

वह वन डे में सर्वाधिक 13909 रन (दिसम्बर-2005 तक) बना चुके थे।

हीरो होंडा स्पोर्ट्स अकादमी ने वर्ष 2004 के लिए सचिन

तेंदुलकर को क्रिकेट का श्रेष्ठतम खिलाड़ी नामांकित किया।

मई 2006 तक सचिन 132 टैस्ट मैचों में 19469 रन और 362 वन डे मैचों में 14146 रन बना चुके थे।

सचिन को अक्सर क्रिकेट का भगवान कहा जाता है। सचिन से यह पूछे जाने पर कि उन्हें यह सुनकर कैसा लगता है, उनका कहना था- ”मैं देवता नहीं हूं। लेकिन खुशी मिलती है जब मेरे देश के लोग मुझ पर इतना भरोसा जताते हैं। मैं देश के भाई-बहनों के चेहरे पर मुस्कान ला सकूं इससे बड़ी बात क्या होगी। भगवान ने यह वरदान दिया है।

35वां शतक बनाने पर सचिन ने कहा- ”वैसे तो सभी शतक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। मैने पहला शतक 17 वर्ष की उम्र में इंग्लैंड के खिलाफ ओल्ड ट्रेफर्ड में जमाया था। पहला होने के कारण वह भी यादगार है और यह 35वां शतक भी सबसे यादगार रहेगा।” सचिन को भगवान में पूरा विश्वास है। साईं बाबा और गणपति के वह अनन्य भक्त हैं।

मदर टेरेसा की जीवनी

तमाम जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में अर्पित करने वाली मदर टेरेसा ऐसे महान लोगों में से एक हैं जो सिर्फ दूसरों के लिए जीती थीं। संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाली मदर टेरेसा का असली नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’था।



मदर टेरेसा का जन्म -

अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे।



मदर टेरेसा के पिता का निधन -

जब वह मात्र आठ साल की थीं तभी उनके पिता परलोक सिधार गए, जिसके बाद उनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं।



समाजसेवी मदर टेरेसा -

18 साल की उम्र में उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला लिया और फिर वह आयरलैंड चली गयीं जहाँ उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी क्योंकि ‘लोरेटो’की सिस्टर्स के लिए ये जरुरी था। आयरलैंड से 6 जनवरी, 1929 को वह कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट पंहुचीं। 1944 में वह सेंट मैरी स्कूल की प्रधानाचार्या बन गईं।



एक कैथोलिक नन -

मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’के नाम से आश्रम खोले, जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व ग़रीबों की स्वयं सेवा करती थीं। 1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948 में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली थी।



मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की स्थापना -

7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य समाज से बेखर और बीमार गरीब लोगों की सहायता करना था। मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिए विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से सम्मनित किया गया था।



पद्मश्री से सम्मनित -

भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्मश्री से सम्मनित किया। इन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार और 1980 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि गरीबों को फंड कर दी। 1985 में अमेरिका ने उन्हें मेडल आफ़ फ्रीडम से नवाजा।



अंतिम समय में रहीं परेशान -

अपने जीवन के अंतिम समय में मदर टेरेसा ने शारीरिक कष्ट के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी झेले क्योंकि उनके ऊपर कई तरह के आरोप लगाए गए थे। उन पर ग़रीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर ईसाई बनाने का आरोप लगा। भारत में भी पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में उनकी निंदा हुई। उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक माना जाता था।



मदर टेरेसा का निधन -

मदर टेरेसा की बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी गिरता चला गया। 1983 में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के दौरान उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। 1989 में उन्हें दूसरा दिल का दौरा पड़ा और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया।



उनका निधन -

उनका निधन साल 1991 में मैक्सिको में उन्हें न्यूमोनिया और ह्रदय की परेशानी हो गयी। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई।

मिल्खा सिंह की जीवनी

मिल्खा सिंह का जन्म पाकिस्तान के लायलपुर में 8 अक्टूबर, 1935 को हुआ था। उन्होंने अपने माता-पिता को भारत-पाक विभाजन के समय हुए दंगों में खो दिया था। वह भारत उस ट्रेन से आए थे जो पाकिस्तान का बॉर्डर पार करके शरणार्थियों को भारत लाई थी। अत: परिवार के नाम पर उनकी सहायता के लिए उनके बड़े भाई-बहन थे। मिल्खा सिंह का नाम सुर्ख़ियों में तब आया जब उन्होंने कटक में हुए राष्ट्रीय खेलों में 200 तथा 400 मीटर में रिकॉर्ड तोड़ दिए। 1958 में ही उन्होंने टोकियो में हुए एशियाई खेलों में 200 तथा 400 मीटर में एशियाई रिकॉर्ड तोड़ते हुए स्वर्ण पदक जीते। इसी वर्ष अर्थात 1958 में कार्डिफ (ब्रिटेन) में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक जीता। उनकी इन्हीं सफलताओं के कारण 1958 में भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। मिल्खा सिंह का नाम ‘फ़्लाइंग सिख’ पड़ने का भी एक कारण था। वह तब लाहौर में भारत-पाक प्रतियोगीता में दौड़ रहे थे। वह एशिया के प्रतिष्ठित धावक पाकिस्तान के अब्दुल खालिक को 200 मीटर में पछाड़ते हुए तेज़ी से आगे निकल गए, तब लोगों ने कहा- ”मिल्खा सिंह दौड़ नहीं रहे थे, उड़ रहे थे।” बस उनका नाम ‘फ़्लाइंग सिख’ पड़ गया।



मिल्खा सिंह ने अनेक बार अपनी खेल योग्यता सिद्ध की। उन्होंने 1968 के रोम ओलंपिक में 400 मीटर दौड़ में ओलंपिक रिकॉर्ड तोड़ दिया। उन्होंने ओलंपिक के पिछले 59 सेकंड का रिकॉर्ड तोड़ते हुए दौड़ पूरी की। उनकी इस उपलब्धि को पंजाब में परी-कथा की भांति याद किया जाता है और यह पंजाब की समृद्ध विरासत का हिस्सा बन चुकी है। इस वक्त अनेक ओलंपिक खिलाड़ियों ने रिकॉर्ड तोड़ा था। उनके साथ विश्व के श्रेष्ठतम एथलीट हिस्सा ले रहे थे। 1960 में रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर दौड़ की प्रथम हीट में द्वितीय स्थान (47.6 सेकंड) पाया था। फिर सेमी फाइनल में 45.90 सेकंड का समय निकालकर अमेरिकी खिलाड़ी को हराकर द्वितीय स्थान पाया था। फाइनल में वह सबसे आगे दौड़ रहे थे। उन्होंने देखा कि सभी खिलाड़ी काफी पीछे हैं अत: उन्होंने अपनी गति थोड़ी धीमी कर दी। परन्तु दूसरे खिलाड़ी गति बढ़ाते हुए उनसे आगे निकल गए। अब उन्होंने पूरा जोर लगाया, परन्तु उन खिलाड़ियों से आगे नहीं निकल सके। अमेरिकी खिलाड़ी ओटिस डेविस और कॉफमैन ने 44.8 सेकंड का समय निकाल कर प्रथम व द्वितीय स्थान प्राप्त किया। दक्षिण अफ्रीका के मैल स्पेन्स ने 45.4 सेकंड में दौड़ पूरी कर तृतीय स्थान प्राप्त किया। मिल्खा सिंह ने 45.6 सेकंड का समय निकाल कर मात्र 0.1 सेकंड से कांस्य पदक पाने का मौका खो दिया।



मिल्खा सिंह को बाद में अहसास हुआ कि गति को शुरू में कम करना घातक सिद्ध हुआ। विश्व के महान एथलीटों के साथ प्रतिस्पर्धा में वह पदक पाने से चूक गए। मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की जब खिलाड़ियों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उनके लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी। आज इतने वर्षों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है। रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे, दर्शक उनका जोशपूर्वक स्वागत करते थे। यद्यपि वहाँ वह टॉप के खिलाड़ी नहीं थे, परन्तु सर्वश्रेष्ठ धावकों में उनका नाम अवश्य था। उनकी लोकप्रियता का दूसरा कारण उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे। लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे। अत: लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है। उस वक्त ‘पटखा’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रूमाल बाँध लेते थे। मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उनके रोम पहुँचने के पूर्व उनकी लोकप्रियता की चर्चा वहाँ पहुंच चुकी थी।



मिल्खा सिंह के जीवन में दो घटनाए बहुत महत्व रखती हैं। प्रथम-भारत-पाक विभाजन की घटना जिसमें उनके माता-पिता का कत्ल हो गया तथा अन्य रिश्तेदारों को भी खोना पड़ा। दूसरी-रोम ओलंपिक की घटना, जिसमें वह पदक पाने से चूक गए। इसी प्रथम घटना के कारण जब मिल्खा सिंह को पाकिस्तान में दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने का आमंत्रण मिल्खा तो वह विशेष उत्साहित नहीं हुए। लेकिन उन्हें एशिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के साथ दौड़ने के लिए मनाया गया। उस वक्त पाकिस्तान का सर्वश्रेष्ठ धावक अब्दुल खादिक था जो अनेक एशियाई प्रतियोगिताओं में 200 मीटर की दौड़ जीत चुका था। ज्यों ही 200 मीटर की दौड़ शुरू हुई यूं लगा कि मानो मिल्खा सिंह दौड़ नहीं, उड़ रहें हों। उन्होंने अब्दुल खादिक को बहुत पीछे छोड़ दिया। लोग उनकी दौड़ को आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। तभी यह घोषणा की गई कि मिल्खा सिंह दौड़ने के स्थान पर उड़ रहे थे और मिल्खा सिंह को ‘फ़्लाइंग सिख’ कहा जाने लगा। उस दौड़ के वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अय्यूब भी मौजूद थे। इस दौड़ में जीत के पश्चात् मिल्खा सिंह को राष्ट्रपति से मिलने के लिए वि.आई.पी. गैलरी में ले जाया गया। मिल्खा सिंह द्वारा जीती गई ट्राफियां, पदक, उनके जूते (जिन्हें पहन कर उन्होंने विश्व रिकार्ड तोड़ा था), ब्लेजर यूनीफार्म उन्होंने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में बने राष्ट्रीय खेल संग्रहालय को दान में दे दिए थे। 1962 में एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह ने स्वर्ण पदक जीता। खेलों से रिटायरमेंट के पश्चात् वह इस समय पंजाब में खेल, युवा तथा शिक्षा विभाग में अतिरिक्त खेल निदेशक के पद पर कार्यरत हैं।



उनका विवाह पूर्व अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ी निर्मल से हुआ था। मिल्खा सिंह के एक पुत्र तथा तीन पुत्रियां है। उनका पुत्र चिरंजीव मिल्खा सिंह (जीव मिल्खा सिंह भी कहा जाता है) भारत के टॉप गोल्फ खिलाड़ियों में से एक है तथा राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेकों पुरस्कार जीत चुका है। उसने 1990 में बीजिंग के एशियाई खेलों में भी भाग लिया था। मिल्खा सिंह की तीव्र इच्छा है कि कोई भारतीय एथलीट ओलंपिक पदक जीते, जो पदक वह अपनी छोटी-सी गलती के कारण जीतने से चूक गए थे। मिल्खा सिंह चाहते हैं कि वह अपने पद से रिटायर होने के पश्चात् एक एथलेटिक अकादमी चंडीगढ़ या आसपास खोलें ताकि वह देश के लिए श्रेष्ठ एथलीट तैयार कर सकें। मिल्खा सिंह अपनी लौह इच्छा शक्ति के दम पर ही उस स्थान पर पहुँच सके, जहाँ आज कोई भी खिलाड़ी बिना औपचारिक ट्रेनिंग के नहीं पहुँच सका।



उपलब्धियां -

1957 में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर में 47.5 सेकंड का नया रिकॉर्ड बनाया।

टोकियो जापान में हुए तीसरे एशियाड (1958) में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर तथा 200 मीटर में दो नए रिकॉर्ड स्थापित किए।

जकार्ता (इंडोनेशिया) में हुए चौथे एशियाड (1959) में उन्होंने 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीता।

1959 में भारत सरकार ने उनकी उपलब्धियों के लिए उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।

1960 में रोम ओलंपिक में उन्होंने 400 मीटर दौड़ का रिकॉर्ड तोड़ा।

1962 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह ने स्वर्ण पदक जीता।

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