भटकती आत्मा किसी के इंतजार में
मैदानी भागों में भी अगर किसी कल-कल बहती नदी के किनारे कोई छोटा सा गाँव हो, आस-पास में हरियाली ही हरियाली हो, शाम के समय गाय-बकरियों का झुंड इस नदी के किनारे के खाली भागों में छोटी-बड़ी झाड़ियों के बीच उग आई घासों को चर रहा हो, गायें रह-रहकर रंभा रही हों, बछड़े कुलाछें भर रहे हों, वहीं कहीं पास में ही एक छोटे से खाली भाग में चरवाहे गुल्ली-डंडा या चिक्का, कबड्डी आदि खेल रहे हों और छोटी-छोटी बातों पर भी तर्क-वितर्क करते हुए हँसी-मजाक कर रहे हों, पास के ही खेतों में किसान लोग खेतों की निराई-गुड़ाई या जुताई कर रहे हों, रह-रहकर कहीं सुर्ती ठोंकने की आवाज आ रही हो तो कोई किसान खेत जोतने के बाद कांधे पर हल उठाए गाँव में जाने की तैयारी कर रहा हो, कुछ घँसगर्हिन घाँस से भरे खाँची को सर पर उठाए, हाथ में हँसुआ और खुर्पी लिए घर की ओर जाने के लिए उतावली दिख रही हों और उसी समय कोई चिंतक वहीं आस-पास नजरे गड़ाए यह सब देख रहा हो तो उसे यह सब देखना या महसूस करना किसी स्वर्णिम आनंद से कम नहीं होगा, यह मनोहारी दृश्य उसके लिए सदा अविस्मरणीय होगा।जब आप सरवरिया क्षेत्र में पूरब की ओर बढ़ेंगे तो नदी के खलार में आप को एक बभनवली नाम का गाँव मिलेगा। इस गाँव में 7 टोले हैं। इन्हीं टोलों में से एक टोला है, बभन टोला। बभन टोला को आप-पास के टोले वाले बभनौती भी कहकर पुकारते हैं, क्योंकि इस टोले पर बसे 22-24 घरों में से 18-20 घर ब्राह्मणों के ही हैं। इस टोले से लगभग 200 मीटर की दूरी पर गंडक बहती है। गाँव में कई सारे देवी-देवताओं के थान हैं। इन थानों में मुख्य रूप से डिहबाबा, बरमबाबा, काली माई, भवानी माई के थान हैं और साथ ही गाँव के बाहर नदी के पास एक टिले पर बना छोटा-सा शिव मंदिर। अगर कभी आप किसी सुरम्य पर्वतीय क्षेत्र का दर्शन किए हों और उसकी खूबसूरती के कायल हों और उसके बाद मैदानी भाग के इस छोटे से टोले रूपी गाँव में जाने को मौका मिल जाए तो हर हालत में यहाँ का सुरम्य वातावरण, गँवई सादगीपूर्ण परिवेश आपको मंत्रमुग्ध कर देगा और आप के मुख से बरबस ही निकल पड़ेगा कि इस भौतिक संसार में अगर कोई अविस्मरणीय, मनोहारी स्थल है तो बस वह यही है।
एक बार की बात है कि एक विदेशी पर्यटक दल घूमते-घामते इस गाँव के पास आ पहुँचा। उस दल को यह ग्रामीण परिवेश, प्राकृतिक सौंदर्य इतना पसंद आया कि वे लोग महीनों तक यहीं रह गए। गाँव वालों ने उनकी बहुत आवभगत भी की। इस दल में नैंसी नामक की एक षोडशी भी थी। प्रकृति ने उसके अंग-प्रत्यंग में बला की खूबसूरती भर दी थी। उसे जो भी देखता, देखता ही रह जाता। नैंसी बहुत शर्मीले स्वभाव की भी थी और यहाँ तक कि अपने पर्यटक दल के सदस्यों के साथ भी बातें करते समय आँखें नीची रखती थी। नैंसी की खूबसूरती में उसके दैनिक कार्य चार-चाँद लगा देते थे। वह प्रतिदिन समय से जगने के बाद नहा-धोकर मंदिर भी जाती थी और गाँव के कुछ किशोरों-बच्चों-महिलाओं आदि को मंदिर के प्रांगण में इकट्ठाकर योग आदि के साथ ही अंग्रेजी बोलना भी सिखाती थी। दरअसल नैंसी को भारतीय संस्कृति से गहरा लगाव था और वह जर्मनी के किसी विश्वविद्यालय से संस्कृत की पढ़ाई भी कर रही थी। नैंसी को कई सारी भाषाओं पर एकाधिकार था। वह फर्राटेदार तत्समी हिंदी बोलती थी। कभी-कभी नैंसी गाँव की महिलाओं को एकत्र कर उन्हें विभिन्न प्रकार की कलाओं में पारंगत करने की कोशिश करती थी। इन महीनों में गाँव वालों की चहेती बन गयी थी, नैंसी। उसके अपनापन ने पूरे गाँववालों को अपना बना लिया था। रमेसर काका तो गाँववालों के सामने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे और सीना तानकर कहते थे कि अगर नैंसी के माता-पिता हाँ करेंगे तो वे अपने बेटे सूरज का बिआह नैंसी से करना पसंद करेंगे, भले ही इसके लिए उनका अपना समाज साथ न दे।
गाँव में आने के बाद अगर नैंसी ने सबसे अधिक समय किसी के साथ बिताया था तो वह था सूरज। नैंसी कभी-कभी सूरज के साथ खेतों के तरफ भी निकल जाया करती और उसके साथ मेड़ पर बैठकर गन्ना खाती, बहुत सारा बतियाती और हिरणी की तरह कुलांछें भरती गाँव में आ जाया करती। कभी-कभी जब सूरज गाय-बैलों को नहलाने के लिए नदी पर जाता तो नैंसी भी उसके साथ जाती और मवेशियों को नहलाने में उसकी मदद करती। पुआल का लुड़ा बना-बनाकर गायों-बैलों के शरीर पर मलती, गायों-बछड़ों को दुलराती और किसी गाय का पगहा पकड़े कोई विदेशी गीत गुनगुनाते सूरज के साथ लौट आती। कभी-कभी किसी बात को लेकर नैंसी और सूरज लड़ भी जाते, पर यह तकरार बहुत अधिक देर तक उन्हें एक दूसरे से दूर नहीं रख पाती। कहीं न कहीं सूरज और नैंसी के दिल के किसी कोने में प्रेम अंगराई लेने लगा था, प्रेम की लौ जलने लगी थी, पर वे दोनों अनजान थे इससे।
विधि का लिखंत कहें या प्रकृति को कोई खेल, लगभग 2-3 महीने के बाद जब वह विदेशी पर्यटक दल उस गाँव से विदा लेने लगा तो नैंसी ने अपने आप को गाँव वालों के दिल के इतने करीब पाया कि वह गाँव वालों कि जिद के आगे नतमस्तक हो गई और अपने साथियों के साथ न जाकर कुछ दिन और गाँव वालों के साथ रहने का मन बना लिया। नैंसी ने ज्योंही उस गाँव में कुछ दिन और रुकने की बात कही, सभी ग्रामवासी प्रफुल्लित मन से मन ही मन उसकी जय-जयकार करने लगे। रमेसर काका तो इतने प्रसन्न थे कि उनके आँख के आँसू बहुत चाहने के बाद भी आँखों में रहना उचित नहीं समझे और आँखें भी अब उनको विदा करना ही ठीक समझीं। लोग कुछ समझ पाते, इससे पहले ही रमेसर काका दौड़कर नैंसी को बाहों में भर लिए और अपनी बेटी की विदाई करने वाले बाबुल की तरह ‘आरे मेरी बेटी’ कहकर अहकने लगे। नैंसी भी अपने आप को रोक न सकी और उनसे लिपटकर आँसू बहाने लगी।
नैंसी ने रमेसर काका के घर के सभी कामों में हाथ बँटाने के साथ ही गाँव वालों को सिखलाना-पढ़ाना जारी रखा। धीरे-धीरे 10-11 महीने बीत गए और अब नैंसी पूरी तरह से ग्रामीण किशोरी के रूप में परिणित हो चुकी थी। इन 10-11 महीनों के बीच नैंसी ने गाँव के किशोरों और युवाओ को इतना प्रेरित किया था, इतना उत्साहित किया था कि गाँव के लगभग अधिकांश किशोर-युवा जो 10वीं और 12वीं आदि पास थे, वे अपनी मेहनत के बल पर सरकारी नौकरियों में चयनित हो गए। रमेसर काका का (बेटा) सूरज भी एनडीए की परीक्षा उत्तीर्णकर प्रशिक्षण के लिए पुणे आ गया। अब गाँव की तस्वीर एकदम से बदल गई थी, पहले जो गाँव की सरलता, सुंदरता व संपन्नता ठंड से काँपती एक चिरई की तरह पंख को सिकोड़े हुए थी; वही सरलता, सुंदरता व संपन्नता अब नैंसी रूपी घाम के लगने से अपना पंख पसार कर उड़ने लगी थी।
सूरज का प्रशिक्षण होते ही वह गाँव वापस आ गया। उसकी पोस्टिंग एक सेना अधिकारी के रूप में हो चुकी थी। वह 10-15 दिन की छुट्टी बिताने के बाद ज्वाइन करने वाला था। इन 10-15 दिनों में समय ने पूरी तरह से करवट लिया। नैंसी के यह बताते ही कि वह अनाथ है, उसका इस दुनिया में कोई नहीं है, रमेसर काका ने स्नेहिल हृदय से उसके सर पर हाथ रखा और अपने सूरज से कहा कि बेटा, “मेरी एक ही इच्छा है कि नैंसी को तूँ अपना ले।” सूरज ने रमेसर काका के हाँ में हाँ तो मिलाई पर कहा कि बाबूजी ज्वाइन करने के बाद मैं पहली छुट्टी में गाँव आते ही नैंसी से ब्याह रचा लूँगा।
कहते हैं कि आदमी एक खिलौना है उस शक्ति का, जो अपने मनोरंजन के लिए, अपने हिसाब से आदमी के साथ खेलती है। इस खेल में आदमी का बस नहीं चलता, उसे तो बस एक कठपुतली की तरह उस शक्ति के इशारों पर नाचना पड़ता है। वह शक्ति जिसके अदृश्य होकर भी दृश्य होने का भान है, वह कभी-कभी कुछ ऐसे खेल कर जाती है कि खिलौना टूटकर बिखर जाता है या उसकी दृश्यता अदृश्यता में परिणित हो जाती है। जी हाँ, परिणीता बनने से पहले ही उस शक्ति ने कुछ ऐसा ही खेल खेला नैंसी के साथ। ऐसा खेल जो नैंसी के जीवन में ऐसा भूचाल ला दिया कि वह सदा-सदा के लिए अदृश्यता में दृश्य बन गई। हुआ यह था कि सूरज सीमा पर आतंकी गतिविधियों का शिकार हो गया था और उसकी लाश भी शायद आतंकी उठाकर ले गए थे। सेना के कई जवान, अधिकारी गायब हो गए थे और 15-20 दिन तक खोज करने के बाद भी जब उनका अता-पता नहीं मिला तो सेना ने यह मान लिया था कि वे आतंक की भेंट चढ़ गए।
नैंसी, वही नैंसी जो पहले एक हिरणी की तरह कुलाछें भरती रहती थी, अब एक मूर्ति बनकर रह गई थी। खाना-पीना सबकुछ त्याग दिया था उसने। गाँव वालों ने, रमेसर काका ने उसे बहुत समझाया पर सब कुछ समझकर भी वह एक नासमझ बनी रही। सूनी आँखों से राह निहारती रही, गाँव के बाहर पागलों जैसी घूमती रही। एक दिन पता नहीं उसे क्या सूझा कि उसने सरकार को पत्र लिखा, जिसमें उसने लिखा था कि उसका सूरज जिंदा है, वह मरा नहीं है। फिर से अभियान चलाकर उसकी नई सिरे से खोज की जाए, वह जरूर मिल जाएगा। पर सरकार उस पत्र पर कोई कार्रवाई नहीं की क्योंकि वह भी पूरी तरह से मान चुकी थी कि सूरज शहीद हो चुका है। अब नैंसी के पास खुद कुछ करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। वह हर हालत में सूरज को पाना चाहती थी और उसका दिल यह मानने को कत्तई तैयार नहीं था कि सूरज अब नहीं रहा। क्योंकि वह एक दिन रमेसर काका से भी कह रही थी कि काका, अगर सूरज नहीं रहा तो मुझे इसका एहसास क्यों नहीं हुआ? काका, हम दो जिस्म पर एक जान हैं, अगर उसे कुछ हुआ होता तो मुझे जरूर पता चलता। पर सात्विक, समर्पित प्रेम को समझना सबके बस की बात नहीं होती, रमेसर काका ने इसे नैंसी का सूरज के प्रति दिवानगी, पागलपन समझा और बस उसे सांत्वना देकर रह गए।
लगभग 1 महीने बीत गए, अब नैंसी थोड़ी कठोर सी लगने लगी थी। उसके चेहरे पर अजीब से भाव बनते-बिगड़ते रहते थे। लोगों को लगता था कि वह थोड़ी सी बाबली हो गई है। एक दिन सुबह जब रमेसर काका खेतों से लौटकर घर वापस आए तो नैंसी घर में न दिखी। दरअसल नैंसी तो सूरज की खोज में निकल गई थी। नैंसी के जाने के लगभग 14-15 दिनों के बाद एक ऐसी घटना घटी जो रमेसर काका और गाँव वालों के लिए बहुत ही हृदय-विदारक थी। इस घटना ने पूरे गाँव को स्तब्ध तो कर दिया था पर पूरे गाँव वाले क्या, जो भी इस घटना को सुनता, नैंसी के कारनामे के आगे नतमस्तक हो जाता। दरअसल नैंसी एक सैनिक के भेष में भारतीय सैनिकों की आँख से बचते हुए वहाँ पहुँच गई थी जहाँ से सूरज गायब हुआ था। उस जगह पर पहुँचकर नैंसी ने गोली चलाते हुए दुश्मन सेना के खेमे में भूचाल ही नहीं लाया था अपितु कितनों को मार गिराया था और भारतीय सेना कुछ समझ पाती इससे पहले ही दुश्मन सेना की एक गोली ने उसकी इह-लीला कर दी थी। फिर सेना के जवानों ने नैंसी के शव को अपने कब्जे में लेकर कुछ कागजी कार्रवाई करने के बाद उसे ससम्मान रमेसर काका को सौंप दिए थे। नैंसी के चले जाने से केवल रमेसर काका का ही घर काटने को नहीं दौड़ता था, अपितु पूरे गाँव में शोक की लहर थी। यहाँ तक कि वह ग्रामीण, सात्विक, मनोरम परिवेश अब आग उगलने लगा था।
पर समय अच्छे-अच्छे घावों को भर देता है। काफी समय बीत जाने के बाद गाँव फिर से अपने पुराने ढर्रे पर लौटने लगा था। लोग बीती बातों को याद कर अपनी आँखें तो गीली कर लेते थे पर उसे एक बुरा स्वप्न मानकर भूल जाना चाहते थे। एक दिन सुबह-सुबह रमेसर काका खेतों से लौटकर आए तो क्या देखते हैं कि घर में किसी के पायल की आवाज सुनाई दे रही है। उन्हें बहुत ही कौतुहल हुआ पर जब वे घर में घुसे तो चूल्हा जलता देख उनके सर की लकीरों के साथ ही पसीने भी उभर आए। जो कुछ भी हो रहा था, वह अजीब था और रमेसर काका कुछ समझ नहीं पा रहे थे। तभी उन्हें एक आवाज ने विस्मित कर दिया, जी हाँ एक महिला आवाज ने। वह सुमधुर आवाज किसी और की नहीं अपितु नैंसी की ही थी। वह आहिस्ते से बोल रही थी, “बाबूजी, डरिए नहीं। मैं हूँ मैं, नैंसी। मैं वापस लौट आई हूँ और बहुत ही जल्द सूरज को भी वापस लाऊँगी।” रमेसर काका के पैर पीछे की ओर मुड़ गए। वे तेजी से घर के बाहर निकले और घर से बाहर निकले ही चिल्लाने लगे। उनकी चिल्लाहट सुनकर गाँव के काफी लोग एकत्र हो गए, फिर उन्होंने लोगों के पूछने पर उंगुली से घर की ओर इशारा करते हुए, कंपकपाई आवाज में कहा कि वह लौट आई है? गाँव के कुछ लोगों ने हिम्मत करके घर में प्रवेश किया कि आखिर कौन लौट आई है, ऐसा क्या हुआ है कि रमेसर काका एकदम से सहम गए हैं? जब गाँव वालों ने घर के अंदर प्रवेश किया तो उन्हें भी किसी के पायल की आवाज सुनाई देने के साथ ही बहुत कुछ ऐसा दिखा, महसूस हुआ जिससे उन्हें भी नैंसी के लौट आने पर भरोसा हो गया, पर फिर भी वे यह मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि नैंसी तो मर चुकी थी, वह कैसे आ सकती है???? अजीब स्थिति थी, फिर कुछ लोगों ने हिम्मत करके नैंसी को आवाज लगाई पर अब तो पायल की आवाज भी गायब हो गई थी, फिर क्या था कुछ लोगों ने रमेसर काका का पूरा घर छान मारा पर उसे नैंसी कहीं नहीं मिली। अब तो गाँव वाले पूरी तरह से डर गए थे, तो क्या नैंसी की आत्मा???????
खैर, उस दिन गाँव वालों ने दोपहर में मंदिर पर एकत्र होकर इस पर चर्चा करनी शुरु कर दी। आखिर अगर नैंसी की आत्मा वापस आ गई है तो अब क्या करना चाहिए? कहीं ऐसा न हो कि वह हम गाँव वालों को परेशान करे। गाँव के बढ़-बुजुर्ग अभी यही सोच रहे थे कि तभी एक हल्की सी आँधी उठी, कोई कुछ समझ पाता इससे पहले ही मंदिर का बड़ा घंटा अपने आप बजने लगा। सब लोग सहमकर बैठ गए, किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, तभी घंटे की आवाज धीमी होने लगी और एक अदृश्य महिला आवाज गूँजने लगी, “हाँ, मैं नैंसी हूँ नैंसी, मैं वापस लौट आई हूँ और जबतक सूरज को लाकर रमेसर काका को सौंप नहीं देती, मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी, पर हाँ मैं यह भी वादा करती हूँ कि मेरे कारण इस गाँव के किसी का भी कोई बुरा नहीं होगा। मैं बहू हूँ इस गाँव की और सदा अपने संबंध को निभाती रहूँगी।” यह आवाज होते ही गाँव वालों के पास अब कुछ कहने या सोचने के लिए कुछ भी तो नहीं बचा था। उन्हें अदृश्यता में दृश्यता का भान हो चुका था। सभी लोग अपने-अपने घरों को जा चुके थे। दूसरे दिन से प्रतिदिन सुबह-सुबह एक अदृश्य आत्मा गाँव में घूम-घूमकर लोगों को सजग करती नजर आने लगी, उसके होने का एहसास तो सबको हो रहा था पर उसकी अदृश्यता एक अबूझ पहेली बनी हुई थी।
अजीब लड़की थी वो, एक आत्मा (भूत) को दिल दे बैठी
रमकलिया, जी हाँ, यही तो नाम था उस लड़की का। सोलह वर्ष की रमकलिया अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थी। उसके माँ-बाप उसका बहुत ही ख्याल रखते थे और उसकी हर माँग पूरी करते थे। अरे यहाँ तक कि, हमारे गाँव-जवार के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि गाँव क्या पूरे जवार में सबसे पहले साइकिल रमकलिया के घर पर ही खरीद कर आई थी। उस साइकिल को देखने के लिए गाँव-जवार टूट पड़ा था। रमकलिया उस समय उस साइकिल को लंगड़ी चलाते हुए गढ़ही, खेत-खलिहान सब घूम आती थी। रमकलिया बहुत ही नटखट थी और लड़कों जैसा मटरगस्टी करती रहती थी। वह लड़कों के साथ कबड्डी, चिक्का आदि खेलने में भी आगे रहती थी। एक बार कबड्डी खेलते समय गलगोदही करने को लेकर झगड़ा हो गया। अरे देखने वाले तो बताते हैं कि रमकलिया ने विपक्षी टीम के लड़कों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा था, पानी पिला-पिला कर मारा था। किसी के दाँत से खून निकल रहा था तो कोई चिल्लाते हुए अपने घर की ओर भाग रहा था। रमकलिया से उसके हमउम्र लड़के पंगा लेना उचित नहीं समझते थे। क्योंकि उसके हमउम्र लड़के उसे उजड्ड और झगड़ालू टाइप की लड़की मानते थे। कोई उसके मुँह लगना पसंद नहीं करता था, हाँ यह अलग बात थी कि सभी लड़के उससे डरते थे।मई का महीना था, कड़ाके की गर्मी पड़ रही थी। रमकलिया खर-खर दुपहरिया में अपनी साइकिल उठाई और गाँव से बाहर अपने बगीचे की ओर चल दी। उसका बगीचा धोबरिया गढ़ई के किनारे था। इस बगीचे में आम और महुए के पेड़ों की अधिकता थी। यह बगीचा गाँव से लगभग 1 किमी की दूरी पर था। बगीचे में पहुँचकर पहले तो रमकलिया खूब साइकिल हनहनाई, पूरे बगीचे में दौड़ाई और पसीने से तर-बतर हो गई। उसने बगीचे के बीचोंबीच एक मोटे आम के पेड़ के नीचे साइकिल खड़ी करके अपने दुपट्टे से चेहरे का पसीना पोछने लगी। पसीना-ओसीना पोछने के बाद, पता नहीं रमकलिया को क्या सूझा कि वह उसी पेड़ के नीचे अपना दुपट्टा बिछाकर उस पर लेट गई।
बगीचे में लेटे-लेटे ही रमकलिया का मन-पंछी उड़ने लगा। वह सोचने लगी कि उसके बाबूजी उसके लिए एक वर की तलाश कर रहे हैं। वह थोड़ा सकुचाई, थोड़ा मुस्काई और फिर सोचने लगी, एक दिन एक राजकुमार आएगा और उसे बिआह कर ले जाएगा। पता नहीं वह कैसा होगा, कौन होगा, कहाँ का होगा? पता नहीं मैं उसके साथ खुश रह पाऊंगी कि नहीं। पर खैर जो ईश्वर की मर्जी होगी वही होगा। बाबूजी उसके लिए जैसा भी लड़का खोजेंगे वह उसी से शादी करके खुश रहेगी। उसे पक्का विश्वास था कि उसके बाबूजी उसकी शादी जरूर किसी धनवान घर में करेंगे। जहाँ उसकी सेवा के लिए जरूर कोई न कोई नौकरानी होगी।
अभी रमकलिया इन्ही सब विचारों में खोई थी कि उसे ऐसा आभास हुआ कि उसके सिर के तरफ कोई बैठकर उसके बालों में अंगुली पिरो रहा है। रमकलिया के साथ ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। ये तो आए दिन की बात थी। बकरी-गाय आदि चराने वाले लड़कियाँ या लड़के चुपके से उसके पीछे बैठकर उसके बालों में अंगुली पिरोते या सहलाते रहते थे। और रमकलिया भी खुश होकर उन्हें थोड़ा-बहुत अपना साइकिल चलाने को देती थी। पर पता नहीं क्यों, आज रमकलिया को यह आभास हो रहा था कि अंगुली कुछ इस तरह से पिरोई जा रही है कि कुछ अलग सा ही एक अनजान आनंद का एहसास हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि कोई बहुत ही प्रेम से बालों को सहलाते हुए अपनी अंगुलियां उसमें पिरो रहा है। आज रमकलिया को एक अलग ही आनंद मिल रहा था, जिसमें उसके यौवन की खुमारी भी छिपी लग रही थी। उसके शरीर में एक हल्की सी गुदगुदी हो रही थी और उसे अंगड़ाई लेने की भी इच्छा हो रही थी। पर वह बिना शरीर हिलाए चुपचाप लेटी रही। उसे लगा कि अगर उठकर बैठ गई तो यह स्वर्गिक आनंद पता नहीं दुबारा मिलेगा कि नहीं। उसने बिना पीछे मुड़े ही धीरे से कहा कि 10 मिनट और ऐसे ही उंगुलियाँ घुमाओ तो मैं 1 घंटे तक तुम्हें साइकिल चलाने के लिए दूँगी पर पीछे से कुछ भी आवाज नहीं आई, फिर भी रमकलिया मदमस्त लेटी रही। उसे हलकी-हलकी नींद आने लगी।
शाम हो गई थी और रमकलिया अभी भी बगीचे में लेटी थी। तभी उसे उसके बाबूजी की तेज आवाज सुनाई दी, “रामकली, बेटी रामकली, अरे कब से यहाँ आई है। मैं और तुम्हारी माँ कब से तुम्हें खोज रहे हैं। इस सुनसान बगीचे में जहाँ कोई भी नहीं है, तूँ निडर होकर सो रही है।” रमकलिया ने करवट ली और अपने बाबूजी को देखकर मुस्काई। उसके बाबूजी उसे घर चलने के लिए कहकर घर की ओर चल दिए। रमकलिया उठी, साइकिल उठाई और लगड़ी मारते हुए गाँव की ओर चल दी।
उस रात पता नहीं क्या हुआ कि रमकलिया ठीक से सो न सकी। पूरी रात करवट बदलती रही। जब भी सोने की कोशिश करती, उसे बगीचे में घटी आज दोपहर की घटना याद आ जाती। वह बार-बार अपने दिमाग पर जोर डाल कर यह जानना चाहती थी कि आखिर कौन था वह??? वह अब पछता रही थी, उसे लग रहा था कि पीछे मुड़कर उसे उससे बात करनी चाहिए थी। लेकिन वह करे भी तो क्या करे, उस अनजान व्यक्ति के कोमल, प्यार भरे स्पर्शों से उसे अचानक कब नींद आ गई थी पता ही नहीं चला था। अरे अगर उसके बाबूजी बगीचे में पहुँच कर उसे जगाते नहीं तो पता नहीं कब तक सोती रहती?
सुबह जल्दी जगकर रमकलिया फिर अपनी साइकिल उठाई और उस बगीचे में चली गई। सुबह की ताजी हवा पूरे बगीचे में हिचकोले ले रही थी पर पता नहीं क्यों सरसराती हवा में, पत्तियों, टहनियों से बात करती हवा में रमकलिया को एक भीनी-भीनी मदमस्त कर देने वाली सुगंध का आभास हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि आज पवन देव उसके बालों से खेल रहे हैं। वह लगभग 1 घंटे तक बगीचे में रही और फिर घर वापस आ गई। घर आने के बाद रमकलिया पता नहीं किन यादों में खोई रही।
उसी दिन फिर से खड़खड़ दुपहरिया में रमकलिया का जी नहीं माना और वह साइकिल उठाकर बगीचे की ओर चली गई। बगीचे में 3-4 राउंड साइकिल दौड़ाने के बाद फिर रमकलिया एक आम के पेड़ के नीचे सुस्ताने लगी। उसे कुछ सूझा, वह हल्की सी मुस्काई और अपने दुपट्टे को अपने सर के नीचे लगाकर सोने का नाटक करने लगी। अभी रमकलिया को लेटे 2-4 मिनट भी नहीं हुए थे कि उसे ऐसा लगा कि कोई उसके बालों में अंगुली पिरो रहा है। वह कुछ बोली नहीं पर धीरे-धीरे अपना हाथ अपने सर पर ले गई। वह उस अंगुलियों को पकड़ना चाहती थी जो उसके बालों में घुसकर बालों से खेलते हुए उसे एक सुखद आनंद की अनुभूति करा रही थीं। पर उसने ज्यों अपने हाथ अपने सर पर ले गई, वहाँ उसे कुछ नहीं मिला पर ऐसा लग रहा था कि अभी भी कुछ अंगुलियाँ उसके बालों से खेल रही हैं। रमकलिया को बहुत ही अचंभा हुआ और वह तुरंत उठकर बैठ गई। पीछे सर घुमाकर देखी तो गजब हो गया। पीछे कोई नहीं था। उसे लगा कि शायद जो था वह इस पेड़ के पीछे छिप गया हो। पर फिर उसके मन में एक बात आई कि जब वह अपना हाथ सर पर ले गई थी तो वहाँ कुछ नहीं मिला था फिर भी बालों में अंगुलियों के सुखद स्पर्श कैसे लग रहे थे। खैर वह उठ कर खड़ी हो गई और पेड़ के पीछे चली गई पर वहाँ भी कोई नहीं। अब वह बगीचे में आस-पास दौड़ लगाई पर से कोई नहीं दिखा। फिर वह अपने साइकिल के पास आई और तेजी से चलाते हुए गाँव की ओर भागी। उसे डर तो नहीं लग रहा था पर कहीं-न-कहीं एक रोमांचित अवस्था जरूर बन गई थी, जिससे उसके रोंगटे खड़े हो गए थे।
आज की रात फिर रमकलिया सो न सकी। आज कल उसे अपने आप में बहुत सारे परिवर्तन नजर आ रहे थे। उसे ऐसा लगने लगा था कि वह अब विवाह योग्य हो गई है। वह बार-बार शीशे में अपना चेहरा भी देखती। अब उसमें थोड़ा शर्माने के गुण भी आ गए थे। बिना बात के ही कुछ याद करके उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान फैल जाती। पता नहीं क्यों उसे लगने लगा था कि उसके बालों से खेलने वाला कोई उसके गाँव का नहीं, अपितु कोई दूसरा सुंदर युवा है, जो प्यार से वशीभूत होकर उसके पास खींचा चला आता है और चुपके से उसके बालों से खेलने लगता है। फिर उसके दिमाग में कौंधा कि जो भी है, है वह बहुत शर्मीला और साथ ही फुर्तीला भी। क्योंकि पता नहीं कहाँ छूमंतर हो गया कि दिखा ही नहीं। रमकलिया के दिमाग में बहुत सारी बातें दौड़ रही थीं पर सब सुखद एहसास से भरी, रोमांचित करने वाली ही थीं।
अब तो जब तक रमकलिया अपने बगीचे में जाकर 1-2 घंटे लेट नहीं लेटी तब तक उसका जी ही नहीं भरता। रमकलिया का अब प्रतिदिन बगीचे में जाना और एक अलौकिक प्रेम की ओर कदम बढ़ाना शुरू हुआ। एक ऐसा अनजाना, नासमझ प्रेम जो रमकलिया के हृदय में हिचकोले ले रहा था। वह पूरी तरह से अनजान थी इस प्रेम से, फिर भी हो गई थी इस प्रेम की दिवानी। पहली बार प्रेम के इस अनजाने एहसास ने उसके हृदय को गुदगुदाया था, एक स्वर्गिक आनंद को उसके हृदय में उपजाया था।
एक दिन सूर्य डूबने को थे। चरवाहे अपने गाय-भैंस, बकरियों को हांकते हुए गाँव की ओर चल दिए थे। अंधेरा छाने लगा था। ऐसे समय में रमकलिया को पता नहीं क्या सूझा कि वह अपनी साइकिल उठाई और बगीचे की ओर चली गई। आज उसने बगीचे में पहुँच कर साइकिल को एक जगह खड़ा कर खुद ही पास में खड़ी हो गई। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। उसे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि कोई तो है जो अभी उसे उस बगीचे में बुलाया और वह भी अपने आप को रोक न सकी और खिंचते हुए इस बगीचे की ओर चली आई। 2-4 मिनट खड़ा रहने के बाद रमकलिया थोड़ा तन गई, अपने सुकोमल हृदय को कठोर बनाकर बुदबुदाई, “अगर यह कोई इंसान न होकर, भूत निकला तो! खैर जो भी हो, मुझे पता नहीं क्यों, इस रहस्यमयी जीव से मुझे प्रेम हो गया है। भूत हो या कोई दैवी आत्मा, अब तो मैं इससे मिलकर ही रहूँगी। इंसान, इंसान को अपना बनाता है, मैं अब इस दैवी आत्मा को अपना हमसफर बनाऊंगी। देखती हूँ, इस अनजाने, अनसमझे प्यार का परिणाम क्या होता है? अगर वह इंसान नहीं तो कौन है और किस दुनिया का रहने वाला है, कैसी है उसकी दुनिया?” यह सब सोचती हुई, रमकलिया अपने साइकिल का हैंडल पकड़ी और उसे डुगराते हुए बगीचे से बाहर आने लगी। अब बगीचे में पूरा अंधेरा पसर गया था और साथ ही सन्नाटा भी। हाँ रह-रह कर कभी-कभी गाँव की ओर से कोई आवाज उठ आती थी।
रात को रमकलिया अपने कमरे में बिस्तरे पर करवटें बदल रही थी। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। एक अजीब सिहरन, गुदगुदी का एहसास हो रहा था उसको। उसे कभी हँसना तो कभी रोना आ रहा था। तभी अचानक उस कमरे के जंगले से एक बहुत ही तेज, डरावनी सरसराती हवा अचानक कमरे में प्रवेश की। बिना बहती हवा के अचानक कमरे में पैठी इस डरावनी हवा से रमकलिया थोड़ी सहम गई और फटाक से उठकर बैठ गई। उसकी साँसें काफी तेज हो गई थीं। वह धीरे-धीरे लंबी साँस लेकर अपने बढ़ते दिल की धड़कन को भी काबू में करने का प्रयास किया तभी उसे ऐसा लगा कि कोई उसके कान में हौले-हौले, भारी आवाज में गुनगुना रहा हो, “बढ़ती दिल की धड़कन कुछ तो कह रही है, मैं तेरा दिवाना, जलता परवाना हूँ, तूँ क्यों नहीं समझ रही है?” इसी के साथ उसे लगा कि वह सरसराती हवा उसके बिस्तरे के बगल में हल्के से मूर्त रूप में स्थिर हो गई है पर कुछ भी स्पष्ट नहीं है। अचानक उसे लगा कि वही (बगीचे में वाले) सुकोमल हाथ फिर से उसके बालों के साथ खेलने लगे हैं, उसे एक चरम आनंद की अनुभूति करा रहे हैं। वह चाहकर भी कुछ न कह सकी और धीरे-धीरे फिर से लेट गई। अरे यह क्या उसके लेटते ही ऐसा लगा कि उसके कमरे में रखी एक काठ-कुर्सी सरकते हुए उसके सिरहाने की ओर आ रही है। वह करवट बदली और उस काठ-कुर्सी की ओर नजर घुमाई तब तक वह काठ-कुर्सी उसके सिरहाने आकर लग गई। फिर बिना कुछ कहे एक मदमस्त, अल्हड़, प्रेमांगना की तरह अँगराई लेते हुए, साँसों को तेजी के साथ छोड़ते हुए वह फिर से चुपचाप बिस्तरे पर लेट गई। उसके लेटते ही वह सुकोमल हाथ फिर से उसके बालों से खेलने लगे। वह एक कल्पित दुनिया की सैर पर निकल गई।
यह कल्पित दुनिया अलौकिक थी। इस दुनिया की इकलौटी राजकुमारी रमकलिया ही थी जिसे एक अपने सेवक से प्रेम हो गया था। वह इस कल्पित दुनिया में आनंदित होकर विचरण कर रही थी। अचानक रमकलिया को इस कल्पित दुनिया से बाहर आना पड़ा क्योंकि से लगा कि कोई उसका सिर पकड़ कर जोर-जोर से हिला रहा है यानि जगाने की कोशिश कर रहा हो। रमकलिया को लगा कि कहीं यह भी स्वप्न तो नहीं पर वह तो जगी हुई ही थी। वह उठकर बैठ गई। फिर उस कमरे में शुरू हुई एक ऐसी कहानी जो रमकलिया को उसके पिछले जन्म में लेकर चली गई।
रमकलिया बिस्तरे पर सावधान की मुद्रा में बैठी हुई थी। काठ-कुर्सी पर मूर्त रूप में पर पूरी तरह से अस्पष्ट हवा का रूप विराजमान था और वहाँ से एक मर्दानी भारी आवाज सुनाई दे रही थी। वह आवाज कह रही थी, “रमकलिया तूँ मेरी है सिर्फ मेरी। मैं पिछले दो-तीन जन्मों से तुझे प्रेम करता आ रहा हूँ। मैंने हर जन्म में तुझे अपनाने के लिए कुछ-न-कुछ गलत कदम उठाया है। पर इस जन्म में मैं तूझे सच्चाई से पाना चाहूँगा।” वह आवाज आगे बोली, “याद है, पिछले जन्म में भी मैं तुझे अथाह प्रेम करता था। पर तूँ मेरे प्रेम को नहीं समझ सकी और मैं भी बावला, पागल तूझे पेड़ से धक्का दे दिया था। (यहाँ मैं आप लोगों को रमेसरा की कहानी की याद दिलाना चाहूँगा।जो गाँव की गोरी थी और उसे एक भेड़ीहार का लड़का अपना बनाना चाहता था, पर रमेसरा के पिता द्वारा मना करने पर उस भेड़ीहार-पुत्र ने आत्महत्या कर ली थी और प्रेत हो गया था। बाद में वही प्रेत रमेसरा को ओल्हा-पाती खेलते समय धक्का दे दिया था और वही रमेसरा अब रमकलिया के रूप में फिर से पैदा हुई थी। आभार।) मैं वही हूँ पर अब बदल गया हूँ। भले मैं आत्मा हूँ, एक प्रेत हूँ पर अब मैं अपनी प्रियतमा का कोई अहित नहीं करूँगा और अब उसे नफरत से नहीं प्रेम से जीतूँगा।”
उस हवा रूपी आवाज की बातें सुनकर रमकलिया एक पागल प्रेमी की तरह उठकर उस कुर्सी पर विराजमान मूर्त पर अस्पष्ट हवा से लिपट गई। वह सिसक-सिसक कर कहने लगी, तूँ जो भी हो पर है मेरा प्रियतम। मैं अब तेरे बिना जी नहीं सकती। तूँ अब देर न कर। अभी मेरी माँग में सिंदुर भर और मुझे अपना बना। मुझे सदा-सदा के लिए अपने साथ ले चल। इतना कहने के बाद रमकलिया को पता नहीं अचानक क्या हुआ कि वह बिस्तरे पर गिर गई।
सुबह-सुबह रमकलिया के माता-पिता रमकलिया के कमरे का दरवाजा पीटे जा रहे हैं पर वह उठने का नाम नहीं ले रही है। रमकलिया के माता-पिता बहुत ही परेशान हैं क्योंकि रमकलिया के कमरे से कोई सुगबुगाहट नहीं आ रही है। आस-पास के कुछ लोग भी एकत्र हो गए हैं। सब चिल्ला-चिल्लाकर रमकलिया को जगाना चाहते हैं। अंततः रमकलिया के माता-पिता ने कमरे का दरवाजा तोड़ने का फैसला किया क्योंकि वे अब किसी अनहोनी की आसा में पीले पड़ते जा रहे थे। लकड़ी के दरवाजे पर कसकर एक लात पड़ते ही अंदर से लगी उसकी किल्ली निकल गई और भड़ाक से करके दरवाजा खुल गया।
दरवाजा खुलते ही रमकलिया के माता-पिता रमकलिया के बिस्तर की ओर भागे। साथ में आस-पास के कई लोग भी थे। रमकलिया के कमरे का हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था। कमरे में एक अजीब भीनी-भीनी खुशबू पसरी हुई थी और साथ ही रमकलिया के बिस्तरे पर तरह-तरह के फूल बिछे हुए थे। पास पड़ी कुर्सी पर सिंधोरे का एक डिब्बा पड़ा हुआ था और ऐसा लग रहा था कि बिस्तरे पर रमकलिया नहीं, कोई नवविवाहिता लाल साड़ी पहनकर औंधे मुँह लेटी हुई है।
रमकलिया की माँ ने देर न की और बिस्तरे पर सोई उस महिला को झँकझोरने लगी, अरे यह क्या उस सोई तरुणी ने करवट बदला और आँखें मलते हुए उठकर बैठ गई। सभी लोग अचंभित तो थे ही पर रमकलिया का यह रूप देखकर उन्हें साँप भी सूँध गया था। दरअसल वह रमकलिया ही थी पर वह एक नवविवाहिता की तरह सँजरी-सँवरी हुई थी। उसके हाथों में लाल-लाल चुड़ियाँ थीं तो पैर में महावर लगा हुआ था। पता नहीं कहाँ से उसके पैर में नए छागल भी आ गए थे। सर पर सोने का मँगटिक्का शोभा पा रहा था और उस मँगटिक्के के नीचे सिंदूर की हल्की आभा बिखरी हुई थी।
सभी लोग हैरान-परेशान। अरे रात को ही तो रमकलिया अपने कमरे में आई थी। रात को उसके कमरे में कोई सुगबुगाहट भी नहीं हुई। दरवाजा भी नहीं खुला तो इतना सारा सामान कहाँ से आ गया था उसके कमरे में। उसे एक नवदुल्लहन की तरह कौन सजा गया था। क्योंकि उसको जिस तरह से सजाया गया था उससे ऐला लग रहा था कि कोई 8-10 महिलाओं ने 2-4 घंटे मेहनत करके उसे सजाया है। रमकलिया के माता-पिता परेशान थे कि उनके घर में इतना कुछ हो गया और उनके कान पर जूँ तक नहीं।
रमकलिया बिस्तरे से उठी। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। वह अपने कमरे में स्तब्ध खड़ें लोगों विशेषकर अपने पिता और माता की ओर देखने लगी। वह धीरे-धीरे चलकर अपने माता के पास गई और उनके गले लग गई। उसने कहा कि माँ, मैं अब विवाहिता हूँ। इसके बाद भी उसकी माँ कुछ बोल न सकी। सभी लोग आश्चर्य में डूबे। धीरे-धीरे यह बात गाँव क्या पूरे जवार और जिले में पैल गई। लोग रमकलिया के गाँव की तरफ आते और सच्चाई जानने की कोशिश करते पर गाँव के लोगों की सुनी बातों पर अविश्वास से सिर हिलाते चले जाते।
जी हाँ। उस रात उस प्रेत ने रमकलिया से विवाह करके उसे सदा के लिए अपना बना लिया था।
कौन थी वह??
भादों का महीना. काली अँधियारी रात. कभी-कभी रह-रहकर हवा का तेज झोंका आता था और आकाश में रह-रहकर बिजली भी कौंध जाती थी. रमेसर काका अपने घर से दूर घोठे पर मड़ई में लेटे हुए थे. रमेसर काका का घोठा गाँव से थोड़ा दूर एक गढ़ही (तालाब) के किनारे था. गढ़ही बहुत बड़ी नहीं थी पर बरसात में लबालब भर जाती थी और इसमें इतने घाँस-फूँस उग आते थे कि डरावनी लगने लगती थी.इसी गढ़ही के किनारे आम के लगभग 5-7 मोटे-मोटे पेड़ थे, दिन में जिनके नीचे चरवाहे गोटी या चिक्का, कबड्डी खेला करते थे और मजदूर या गाँव का कोई व्यक्ति जो खेत घूमने या खाद आदि डालने गया होता था आराम फरमाता था.
धीरे-धीरे रात ढल रही थी पर हवा का तेज झोंका अब आँधी का रूप ले चला था. आम के पेड़ों के डालियों की टकराहट की डरावनी आवाज उस भयंकर रात में रमेसर काका की मड़ई में बँधी भैंस को भी डरा रही थी और भैंस डरी-सहमी हुई रमेसर काका की बँसखटिया से चिपक कर खड़ीं हो गई थी. रमेसर काका अचानक सोए-सोए ही हट-हट की रट लगाने लगे थे पर भैंस अपनी जगह से बिना टस-मस हुए सिहरी हुई हटने का नाम नहीं ले रही थी.
रमेसर काका उठकर बैठ गए और बैठे-बैठे ही भैंस के पेट पर हाथ फेरने लगे. भैंस भी अपनापन पाकर रमेसर काका से और सटकर खड़ी हो गई. रमेसर काका को लगा कि शायद भैंस को मच्छर लग रहे हैं इसलिए बैठ नहीं रही है और बार-बार पूँछ से शरीर को झाड़ रही है. वे खड़े हो गए और मड़ई के दरवाजे पर रखे धुँहरहे (मवेशियों को मच्छर आदि से बचाने के लिए जलाई हुई आग जिसमें से धुँआ निकलकर फैलता है और मच्छर आदि भग जाते हैं) पर थोड़ा घांस-फूंस रखकर मुँह से फूंकने लगे.
रमेसर काका फूँक मार-मारकर आग तेज करने लगे और धुंआ भी बढ़ने लगा। बार-बार फूँक मारने से अचानक एक बार घांस-फूँस जलने लगी और मड़ई में थोड़ा प्रकाश फैल गया। उस प्रकाश में अचानक रमेसर काका की नजर उनकी बंसखटिया पर पड़ी। अरे उनको तो बँसखटिया पर एक औरत दिखाई दी। उसे देखते ही उनके पूरे शरीर में बिजली कौंध गई और इसके साथ ही आकाश में भी बिजली कड़की और एक तेज प्रकाश हुआ।
रमेसर काका डरनेवालों में से तो नहीं थे पर पता नहीं क्यों उनको आज थोड़ा डर का आभास हुआ। पर उन्होंने हिम्मत करके आग को और तेज किया और उसपर सूखा पुआल रखकर पूरा अँजोर (प्रकाश) कर दिया। अब उस पुआल के अँजोर में वह महिला साफ नजर आ रही थी, अब रमेसर काका उस अंजोर में उस औरत को अच्छी तरह से देख सकते थे।
रमेसर काका ने धुँहरहे के पास बैठे-बैठे ही जोर की हाँक लगाकर पूछा, ''कौन है? कौन है वहाँ?"
पर उधर से कुछ भी प्रतिक्रिया न पाकर वे सन्न रह गए. उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि अब क्या करना है. वे मन ही मन कुछ बुदबुदाए और उठकर खड़े हो गए. उनके पैर न आगे अपनी खाट की ओर ही बढ़ रहे थे और ना ही मड़ई के बाहर ही.
अचानक खाट पर बैठी महिला अट्टहास करने लगी. उसकी तेज, भयंकर, डरावनी हँसी ने उस अंधेरी काली रात को और भी भयावह बना दिया. रमेसर काका पर अब सजग हो चुके थे. उन्होंने अब सोच लिया था कि डरना नहीं है क्योंकि अगर डरा तो मरा.
रमेसर काका अब तनकर खड़े हो गए थे. उन्होंने मड़ई के कोने में रखी लाठी को अपने हाथ में ले लिया था. वे फिर से बोल पड़े, "कौन हो तुम? तुमको क्या लगता है, मैं तुमसे डर रहा हूँ??? कदापि नहीं.' और इतना कहते ही रमेसर काका भी हा-हा-हा करने लगे। पर सच्चाई यह थी कि रमेसर काका अंदर से पूरी तरह डरे हुए थे। रमेसर काका का वह रूप देखकर वह महिला और उग्र हो गई और अपनी जगह पर खड़ी होकर तड़पी, "तूँ...डरता नहीं...है.SSSSSSSS न..बताती हूँ मैं तुझे." रमेसर काका को पता नहीं क्यों अब कुछ और बल मिला और डर और भी कम हुआ. वे बोल पड़े, "बता, क्या करेगी तूँ मेरा? जल्दी यहाँ से निकल नहीं तो इस लाठी से मार-मारकर तेरा सिर फोड़ दूँगा." इतना कहते ही रमेसर काका ने अपनी लाठी तान ली.
महिला चिल्लाई, "तूँ मुझे मेरे ही घर से निकालेगा? अरे मेरा बचपन बीता है इस मड़ई में. यह मेरा घर है मेरा. मैं बरसों से यहीं रहते आ रहीं हूं. पर पहले तो किसी ने कभी नहीं भगाया. यहाँ तक कि भइया (कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में पिताजी को भइया भी कहते हैं) ने भी." अब पता नहीं क्यों रमेसर काका का गुस्सा और डर दोनों शांत हो रहे थे. उनको अब लग रहा था कि उनके सामने जो महिला खड़ी है उसको वे जानते हैं, उसकी आवाज पहचानते हैं.
रमेसर काका अब लाठी पर अपने शरीर को टिका दिए थे और दिमाग पर जोर डालकर यह सोचने की कोशिश करने लगे कि यह कौन है? और अगर पहचान की है तो यह चुड़ैल के रूप में भयंकर, विकराल चेहरेवाली क्यों है? ओह तो यह बलेसरा बहिन (बहन) है क्या? अचानक उनके दिमाग में कौंधा. नहीं-नहीं बलेसरा बहिन नहीं हो सकती. उसे तो मरे हुए पच्चीसो साल हो गए. अब रमेसर काका अपने अतीत में जा चुके थे. उनको सबकुछ याद आ रहा था. उस समय उनकी बलेसरा बहिन 12-14 साल की थीं और उम्र में उनसे 3-4 साल बड़ी थी. चारा काटने से लेकर गोबर-गोहथार करने में दोनों भा-बहिन साथ-साथ लगे रहते थे. एक दिन दोपहर का समय था और इसी गड़ही पर इन्हीं आमों के पेड़ों पर गाँव के कुछ बच्चे ओल्हा-पाती खेल रहे थे. बलेसरा बहिन बंदरों की भांति इस डाली से उस डाली उछल-कूद कर रही थी. नीचे चोर बना लड़का पेड़ों पर चढ़े लड़के-लड़कियों को छूने की कोशिश कर रहा था. अचानक कोई कुछच समझे इससे पहले ही बलेसरा बहिन जिस डाली पर बैठी थी वह टूट चुकी थी और बलेसरा बहिन औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ी थीं. सभी बच्चों को थकुआ मार गया था और जबतक बड़ें लोग आकर बलेसरा बहिन को उठाते तबतक उसकी इहलीला हो चुकी थी.
रमेसर काका अभी यही सब सोच रहे थे तबतक उन्हें उस औरत के रोने की आवाज सुनाई दी. बिलकुल बलेसरा बहिन की तरह. अब रमेसर काका को पूरा यकीं हो गया था कि यह बलेसरा बहिन ही है. रमेसरा काका अब ये भूल चुके थे कि उनकी बहन मर चुकी है वे दौड़कर खाट के पास गए और बलेसरा बहिन को अंकवार में पकड़कर रोने लगे थे. उन्हें कुछ भी सूझ-बूझ नहीं थी. सुबह हो गई थी और वे अभी भी रोए जा रहे थे. तभी उधर कुछ लोग कुछ काम से आए और उन्हें रमेसर काका के रोने की आवाज सुनाई दी. उन्होंने मड़ई में झाँक कर देखा तो रमेसर काका एक महिला को अँकवार में पकड़कर रो रहे थे.
उस महिला को देखते ही ये सभी लोग सन्न रह गए क्योंकि वह वास्तव में बलेसरा ही थीं जो बहुत समय पहले भगवान को प्यारी हो गई थीं. धीरे-धीरे यह बात पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई और उस गड़ही पर भीड़ लग गई. गाँव के बुजुर्ग पंडीजी ने कहा कि दरअसल बलेसरा जब मरी तो वह बच्ची नहीं थी, उसकी अंतिम क्रिया करनी चाहिए थी पर उसे बच्ची समझकर केवल दफना दिया गया था और अंतिम क्रिया नहीं किया गया था. उसकी आत्मा भी भटक रही है.
लोग अभी आपस में बात कर ही रहे थे तभी रमेसर काका बलेसरा बहिन के साथ मड़ई से बाहर निकले. बलेसरा गाँव के लोगों को एकत्र देखकर फूट-फूटकर रोने लगी थी. सब लोग उसे समझा रहे थे पर दूर से ही. रमेसर काका के अलावा किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह बलेसरा के पास जाए.
बलेसरा अचानक बोल पड़ी, ""हाँ यह सही है कि मैं मर चुकी हूँ. पर मुझसे डरने की आवश्यकता नहीं है. मैं इसी गाँव की बेटी हूँ पर आजतक भटक रही हूं. मेरी सुध कोई नहीं ले रहा है. मैं इस गड़ही पर रहकर अन्य भूत-प्रेतों से अपने गाँव के लोगों की रक्षा करती हूँ. मैं नहीं चाहती हूँ कि इस गड़ही पर, इन आम के पेड़ों पर अगर कोई गाँव का व्यक्ति ओल्हा-पाती खेले तो उसे किसी भूत का कोपभाजन बनना पड़े. इतना कहने के बाद बलेसरा रोने लगी और रोते-रोते बोली, "मुझे एक प्रेत ने ओल्हा-पाती खेलते समय धक्का दे दिया था."
आगे बलेसरा ने जो कुछ बताया उससे लोगों के रोएं खड़े हो गए.....बलेसरा ने क्या-क्या बताया इसे जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का आपको इंतजार करना पड़ेगा. आखिर वो प्रेत कौन था जिसने बलेसरा को धक्का दिया था. इन बूत-प्रेतों की दुनिया कैसी है? यह सब जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का इंतजार करें............
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