Saturday, 31 March 2018

शेयर बाजार

शेयर बाजार क्या है?

शेयर का सीधा सा अर्थ होता है हिस्सा। शेयर बाजार की भाषा में बात करें तो शेयर का अर्थ है कंपनियों में हिस्सा। उदाहरण के लिए एक कंपनी ने कुल 10 लाख शेयर जारी किए हैं। आप कंपनी के प्रस्ताव के अनुसार जितने अंश खरीद लेते हैं आपका उस कंपनी में उतने का मालिकाना हक हो गया जिसे आप किसी अन्य खरीददार को जब भी चाहें बेच सकते हैं। आप 100 से लेकर अधिकतम शेयर खरीद सकते हैं।

कंपनी जब शेयर जारी करती है उस वक्त किसी व्यक्ति या समूह को कितने शेयर देना हैं यह उसका विवेकाधीन अधिकार है। बाजार से शेयर बाजार खरीदने/बेचने के लिए कई शेयर ब्रोकर्स होते हैं जो उनके तय पारिश्रमिक (लगभग 2 फीसदी) लेकर अपने ग्राहकों को यह सेवा देते हैं।

इन कंपनियों के शेयरों का मूल्य मुंबई शेयर बाजार (बीएसई) में दर्ज होता है। सभी कंपनियों का मूल्य उनकी लाभदायक क्षमता के अनुसार कम-ज्यादा होता है। इस पूरे बाजार में नियंत्रण भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) का होता है। इसकी अनुमति के बाद ही कोई कंपनी अपना प्रारंभिक निर्गम इश्यू (आईपीओ) जारी कर सकती है।

प्रत्येक छमाही या वार्षिक आधार पर कंपनियां लाभ होने पर अंशधारकों को लाभांश भी देती हैं। और कंपनी की गतिविधियों की जानकारी से भी रूबरू कराती है।

शेयर बाजार में लिस्टेड होने के लिए कंपनी को बाजार से लिखित समझौता करना पडता है, जिसके तहत कंपनी अपनी हर हरकत की जानकारी बाजार को समय-समय पर देती रहती है, खासकर ऐसी जानकारियां, जिससे निवेशकों के हित प्रभावित होते हों। इन्हीं जानकारियों के आधार पर कंपनी का मूल्यांकन होता है और इस मूल्यांकन के आधार पर मांग घटने-बढ़ने से उसके शेयरों की कीमतों में उतार-चढाव आता है। अगर कोई कंपनी लिस्टिंग समझौते के नियमों का पालन नहीं करती, तो उसे डीलिस्ट करने की कार्रवाई सेबी करता है।

कैसे होती है सेंसेक्स में उतार-चढ़ाव की गणना

भारतीय शेयर बाजार में इन दिनों उठा पटक जारी है। एक समय 20,000 अंक से ऊपर के रिकार्ड स्तर पर पहुंचने के बाद शेयर बाजार 15,000 अंक तक लुढ़क चुका है और इससे निवेशकों में हड़कंप मचा हुआ है। हम अक्सर शेयर बाजार में अंकों के चढ़ने और उतरने की चर्चा करते हैं, जैसे शेयर बाजार 200 या फिर 300 अंक ऊपर या नीचे गिर गया। पर क्या हम यह जानते हैं कि शेयर बाजार के ऊपर उठने या फिर नीचे गिरने की गणना कैसे की जाती है।

इस अंक में हम यही बताने की कोशिश करेंगे कि आखिर शेयर बाजारों में उतार चढ़ाव का आकलन कैसे किया जाता है। देश में मुख्य रूप से दो शेयर बाजार हैं: मुंबई स्थित बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई)। बीएसई में सूचीबद्ध कंपनियों के प्रदर्शन को सेंसेक्स से बताया जाता है जबकि एनएसई में इसे निफ्टी के नाम से जाना जाता है।

अगर हम कहते हैं कि सेंसेक्स ऊपर गया तो इसका मतलब होता है कि बीएसई में शामिल अधिकांश कंपनियों के शेयरों ने अच्छा प्रदर्शन किया है। वहीं ठीक इसी तरह सेंसेक्स के नीचे लुढ़कने का मतलब होता है, इसमें शामिल कंपनियों के शेयरों के भाव नीचे गिरना।

सेंसेक्स का आकलन

बीएसई में सचीबद्ध 30 कंपनियों के शेयरों के प्रदर्शन के आधार पर सेंसेक्स का निर्धारण किया जाता है। इसके आकलन के लिए मुक्त बाजार पूंजीकरण विधि का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि यहां ध्यान रखना चाहिए कि सेंसेक्स के आकलन को सटीक बनाने के लिए समय समय पर इन 30 कंपनियों में बदलाव किया जाता है। अब इस तकनीक को जानने के पहले यह समझते हैं कि बाजार पूंजीकरण क्या है?

बाजार पूंजीकरण

शेयर के आधार पर किसी कंपनी का कुल मूल्य ही उस कंपनी का बाजार पूंजीकरण कहलाता है। किसी कंपनी का बाजार पूंजीकरण पता करने के लिए उस कंपनी के जारी किए गए कुल शेयरों की संख्या को कंपनी के एक शेयर के भाव से गुना कर दिया जाता है। कंपनी के बाजार पूंजीकरण के आधार पर ही यह तय किया जाता है कि कंपनी मिड-कैप, स्मॉल-कैप या फिर लार्ज-कैप है। बाजार पूंजीकरण को समझने के बाद हम मुक्त बाजार पूंजीकरण को समझने की कोशिश करेंगे।

मुक्त बाजार पूंजीकरण

किसी कंपनी के शेयर विभिन्न किस्म के निवेशकों के पास होते हैं। इनमें से कुछ शेयरों पर सरकार का कब्जा हो सकता है तो कुछ पर कंपनी के संस्थापक या फिर निदेशकों का। अब मुक्त या फ्री फ्लोट शेयर उन्हें कहते हैं जिनका कारोबार खुले बाजार में किया जाता है। यानी जिन्हें कोई भी निवेशक खरीद सकता है।

जब हम सेंसेक्स का आकलन करते हैं तो हम दरअसल इन्हीं शेयरों की चर्चा कर रहे होते हैं। मुक्त शेयर ऐसे शेयर होते हैं जिन पर कंपनी के संस्थापक, निदेशक या मालिक का कोई हक नहीं होता, जिनपर किसी व्यक्ति या इकाई की होल्डिंग्स का हक नहीं होता। जिनपर सरकार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई), निजी कारोबारी इकाइयों, एसोशिएट या समूह कंपनियों कर्मचारी वेलफेयर ट्रस्ट का हिस्सा न हो।

साथ ही ऐसे शेयर जो लॉक्ड इन की श्रेणी में आते हैं और जिन्हें आम निवेशकों के लिए जारी नहीं किया जाता है, वे भी मुक्त शेयर नहीं कहलाते। हर कंपनी को बीएसई को संपूर्ण रिपोर्ट सौंपनी होती है कि उसके कितने शेयर किन किन लोगों के पास हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर बीएसई तय करती है कि कंपनी के मुक्त शेयर कितने हैं और कंपनी का मुक्त बाजार पूंजीकरण कितना है।

निवेश में धोखे

आज आपको कुछ साधारण किस्म के धोखों से बचने के उपायों के बारे में बताते हैं जो कि अक्सर आपके एजेंट Agents कर जाते हैं।

मेरे एक मित्र ने निवेश Invest तो किया था म्यूचल फंड Mutual Fund में मगर एजेंट Agent ने उन्हें यूलिप Ulip बेच दिया। कई बार ऐसा होता है कि एजेंट Agent सपने तो किसी और प्लान या प्रोडक्ट के दिखाते हैं मगर जब वास्तव में आपके पास निवेश के कागज पहुंचते हैं तो उसमें कुछ और ही निकलता है। कई निवेशक Investors तो आलस के कारण या जानकारी न होने के कारण प्राप्त कागजों को देखते भी नहीं कि उन्हें जो निवेश के कागजात मिले हैं उनमें सब कुछ सही है कि नहीं।

आपको हमने पहले भी इस बात के लिये आगाह किया था कि कैसे कुछ एजेंट Agent बड़े बड़े वादे करके कुछ भी बेच देते हैं। यह भी बताया था कि किस तरह से अपने एजेंट का चुनाव करें। इसके बाद जब आप कोई निवेश करते हैं निवेश के कगज प्राप्त होने के बाद क्या करना है आज हम आपको वही बताना चाहते हैं

कारक in hindi

कारक

कारक
परिभाषा-संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सीधा संबंध क्रिया के साथ ज्ञात हो वह कारक कहलाता है। जैसे-गीता ने दूध पीया। इस वाक्य में ‘गीता’ पीना क्रिया का कर्ता है और दूध उसका कर्म। अतः ‘गीता’ कर्ता कारक है और ‘दूध’ कर्म कारक।
कारक विभक्ति- संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों के बाद ‘ने, को, से, के लिए’, आदि जो चिह्न लगते हैं वे चिह्न कारक विभक्ति कहलाते हैं।हिन्दी में आठ कारक होते हैं। उन्हें विभक्ति चिह्नों सहित नीचे देखा जा सकता है-
कारक विभक्ति चिह्न (परसर्ग)
1. कर्ता ने
2. कर्म को
3. करण से, के साथ, के द्वारा
4. संप्रदान के लिए, को
5. अपादान से (पृथक)
6. संबंध का, के, की
7. अधिकरण में, पर
8. संबोधन हे ! हरे !
कारक चिह्न स्मरण करने के लिए इस पद की रचना की गई हैं-
कर्ता ने अरु कर्म को, करण रीति से जान।
संप्रदान को, के लिए, अपादान से मान।।
का, के, की, संबंध हैं, अधिकरणादिक में मान।
रे ! हे ! हो ! संबोधन, मित्र धरहु यह ध्यान।।
विशेष-कर्ता से अधिकरण तक विभक्ति चिह्न (परसर्ग) शब्दों के अंत में लगाए जाते हैं, किन्तु संबोधन कारक के चिह्न-हे, रे, आदि प्रायः शब्द से पूर्व लगाए जाते हैं।

1.कर्ता कारक-
जिस रूप से क्रिया (कार्य) के करने वाले का बोध होता है वह ‘कर्ता’ कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘ने’ है। इस ‘ ने ’ चिह्न का वर्तमानकाल और भविष्यकाल में प्रयोग नहीं होता है। इसका सकर्मक धातुओं के साथ भूतकाल में प्रयोग होता है। जैसे- 1.राम ने रावण को मारा। 2.लड़की स्कूल जाती है।पहले वाक्य में क्रिया का कर्ता राम है। इसमें ‘ने’ कर्ता कारक का विभक्ति-चिह्न है। इस वाक्य में ‘मारा’ भूतकाल की क्रिया है। ‘ने’ का प्रयोग प्रायः भूतकाल में होता है। दूसरे वाक्य में वर्तमानकाल की क्रिया का कर्ता लड़की है। इसमें ‘ने’ विभक्ति का प्रयोग नहीं हुआ है।विशेष- (1) भूतकाल में अकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ भी ने परसर्ग (विभक्ति चिह्न) नहीं लगता है। जैसे-वह हँसा।
(2) वर्तमानकाल व भविष्यतकाल की सकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ ने परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। जैसे-वह फल खाता है। वह फल खाएगा।
(3) कभी-कभी कर्ता के साथ ‘को’ तथा ‘स’ का प्रयोग भी किया जाता है। जैसे-
(अ) बालक को सो जाना चाहिए। (आ) सीता से पुस्तक पढ़ी गई।
(इ) रोगी से चला भी नहीं जाता। (ई) उससे शब्द लिखा नहीं गया।

2.कर्म कारक-
क्रिया के कार्य का फल जिस पर पड़ता है, वह कर्म कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘ को ’ है। यह चिह्न भी बहुत-से स्थानों पर नहीं लगता। जैसे- 1. मोहन ने साँप को मारा। 2. लड़की ने पत्र लिखा। पहले वाक्य में ‘मारने’ की क्रिया का फल साँप पर पड़ा है। अतः साँप कर्म कारक है। इसके साथ परसर्ग ‘को’ लगा है।
दूसरे वाक्य में ‘लिखने’ की क्रिया का फल पत्र पर पड़ा। अतः पत्र कर्म कारक है। इसमें कर्म कारक का विभक्ति चिह्न ‘को’ नहीं लगा।

3.करण कारक-
संज्ञा आदि शब्दों के जिस रूप से क्रिया के करने के साधन का बोध हो अर्थात् जिसकी सहायता से कार्य संपन्न हो वह करण कारक कहलाता है। इसके विभक्ति-चिह्न ‘से’ के ‘द्वारा’ है। जैसे- 1.अर्जुन ने जयद्रथ को बाण से मारा। 2.बालक गेंद से खेल रहे है।
पहले वाक्य में कर्ता अर्जुन ने मारने का कार्य ‘बाण’ से किया। अतः ‘बाण से’ करण कारक है। दूसरे वाक्य में कर्ता बालक खेलने का कार्य ‘गेंद से’ कर रहे हैं। अतः ‘गेंद से’ करण कारक है।

4. संप्रदान कारक-
संप्रदान का अर्थ है-देना। अर्थात कर्ता जिस के लिए कुछ कार्य करता है, अथवा जिसे कुछ देता है उसे व्यक्त करने वाले रूप को संप्रदान कारक कहते हैं। इसके विभक्ति चिह्न ‘के लिए’ को हैं।
1.स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो। 2.गुरुजी को फल दो।
इन दो वाक्यों में ‘स्वास्थ्य के लिए’ और ‘गुरुजी को’ संप्रदान कारक हैं।

5. अपादान कारक-
संज्ञा के जिस रूप से एक वस्तु का दूसरी से अलग होना पाया जाए वह अपादान कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘से’ है। जैसे- 1.बच्चा छत से गिर पड़ा। 2.संगीता घोड़े से गिर पड़ी।
इन दोनों वाक्यों में ‘छत से’ और घोड़े ‘से’ गिरने में अलग होना प्रकट होता है। अतः घोड़े से और छत से अपादान कारक हैं।

6. संबंध कारक-
शब्द के जिस रूप से किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु से संबंध प्रकट हो वह संबंध कारक कहलाता है। इसका विभक्ति चिह्न ‘ का’, ‘के’, ‘की’, ‘रा’, ‘रे’, ‘री ’ है। जैसे- 1.यह राधेश्याम का बेटा है। 2.यह कमला की गाय है।
इन दोनों वाक्यों में ‘राधेश्याम का बेटे’ से और ‘कमला का’ गाय से संबंध प्रकट हो रहा है। अतः यहाँ संबंध कारक है।

7. अधिकरण कारक-
शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इसके विभक्ति-चिह्न ‘ में’, ‘पर ’ हैं। जैसे- 1.भँवरा फूलों पर मँडरा रहा है। 2.कमरे में टी.वी. रखा है।
इन दोनों वाक्यों में ‘फूलों पर’ और ‘कमरे में’ अधिकरण कारक है।

8. संबोधन कारक -
जिससे किसी को बुलाने अथवा सचेत करने का भाव प्रकट हो उसे संबोधन कारक कहते है और संबोधन चिह्न (!) लगाया जाता है। जैसे- 1. अरे भैया ! क्यों रो रहे हो ? 2. हे गोपाल ! यहाँ आओ।
इन वाक्यों में ‘अरे भैया’ और ‘हे गोपाल’ ! संबोधन कारक है।

पुनर्जागरण

पुनर्जागरण

• नवयुग के अवतरण की सूचना देने वाला पुनर्जागरण आंदोलन 15 वीँ शताब्दी मेँ हुआ था।

• पुनर्जागरण का शाब्दिक अर्थ होता है - फिर से जागना।

• मध्यकाल मेँ यूनानी एवम लैटिन साहित्य को भुलाकर यूरोप की जनता अंधविश्वासों मेँ पड़ गई थी, उसमेँ निराशा की भावना एवं उत्साहहीनता ने जन्म लिया था। पुनर्जागरण मेँ मध्ययुगीन आडंबरोँ, अंधविश्वास एवं प्रथाओं को समाप्त किया तथा उसके स्थान पर व्यक्तिवाद, भौतिकवाद, स्वतंत्रता की भावना, उन्नत आर्थिक व्यवस्था एवं राष्ट्रवाद को प्रतिस्थापित किया।

• पुनर्जागरण का प्रारंभ इटली के फ्लोरेंस नगर से माना जाता है।

• बिजेंटाइन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुनतुनिया का पतन, पुनर्जागरण का एक प्रमुख कारण था।

• इटली के महान कवि दांते को पुनर्जागरण का अग्रदूत माना जाता है। इन्होंने इटली की बोलचाल की भाषा टस्कन मेँ डिवाइन कॉमेडी की रचना की।

• इटली के निवासी पेट्रॅाक को मानववाद का संस्थापक माना जाता है।

• द प्रिंस के रचयिता मैकियावेली को आधुनिक विश्व का प्रथम राजनीतिक चिंतक माना जाता है।

• द लास्ट सपर एवं मोनालिसा नामक चित्रोँ के रचयिता लियोनार्डो दा विंसी चित्रकार के अलावा मूर्तिकार, इंजीनियर, वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं कवि और गायक थे।

• इंग्लैण्ड के रोजर बेकन को आधुनिक प्रयोग का जन्मदाता माना जाता है।

• जिआटो को चित्रकला का जनक माना जाता है। कोपरनिकस ने बताया पृथ्वी सूर्य के चारोँ ओर घूमती है तथा जर्मनी के केपलर ने इसकी पुष्टि की।

• गैलिलियो ने दोलन संबंधी सिद्धांत दिया, जिससे वर्तमान मेँ प्रचलित घड़ियों का निर्माण हुआ।

• न्यूटन गुरुत्वाकर्षण के नियम का पता लगाया।

3 types of Psychology

27. पत्र लेखन

पत्र लेखन
मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते अपने जन्म से मृत्यु पर्यंत अपने भावों और विचारों को दूसरों तक संप्रेषित करता है। आदि काल में मनुष्य ढोल बजाकर चिल्ला कर या आग जलाकर अपने संदेश अपने मित्रों या परिचितों तक पहुंचाता था। आज का युग सूचना क्रांति का युग है, संदेश संप्रेषण के कई साधन आज हमारे पास उपलब्ध है। इन अत्याधुनिक साधनों को अपनाते हुए भी पत्र का महत्व है।
कई बार वह अपने स्वजनों को बधाई वह शुभकामना प्रेषण के लिए पत्र लिखता है, तो कई बार रोजगार के लिए आवेदन पत्र लिखता है। कभी किसी कार्य के न हो पाने पर शिकायती पत्र या सरकारी कामकाजों के संपादन के लिए भी एक कर्मचारी को नित्य प्रति कई प्रकार के पत्र लिखने होते हैं। इसी कारण संदेश प्रेषण के कितने ही अत्याधुनिक विकल्प उपस्थित होने के बावजूद पत्र लेखन का आज भी अपना महत्व है, लेकिन वास्तव में पत्र लेखन भी एक कला है।
अच्छे पत्र की विशेषताएं
एक अच्छे एवं प्रभावी पत्र में निम्नलिखित विशेषता होती है-
1. सरलता:-
एक अच्छे पत्र की भाषा सरल होनी चाहिए जिससे कि प्राप्तकर्ता को संदेश सरलता से संप्रेषित हो सकें उसमें कठिन भाषा में नहीं होनी चाहिए।
2. स्पष्टता:-
एक अच्छे पत्रिका प्रमुख गुण स्पष्टता होता है। पत्र लेखक को अपनी बात इतनी स्पष्ट लिखनी चाहिए कि प्राप्तकर्ता आपके संदेश को स्पष्ट रुप से ग्रहण करें।
3. संक्षिप्तता:-
पत्र में संक्षिप्तता का गुण भी होता है। पत्र लेखक को अपनी बात कम शब्दों में पूरी करने का प्रयास करना चाहिए। कई बार हम एक ही बात को अलग-अलग शब्दों में पुनः लिखते जाते हैं। इस वृत्ति से हमें बचना चाहिए।
4. क्रमबद्धता:-
पत्र लेखक को अपने पत्र लेखन में क्रमबद्धता का भी ध्यान रखना चाहिए। जब एक ही पत्र में एकाधिक बातें लिखी जाने हो तब पहले महत्वपूर्ण बातों को लिखते हुए फिर सामान्य बातों की और बढ़ना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि एक बार जब लिखना प्रारंभ करें तब उसे पूरी तरह पूर्ण करने के बाद ही दूसरे विषय पर लिखना आरंभ करना चाहिए।
5. संपूर्णता:-
पत्र लेखक को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह जो-जो संदेश संप्रेषित करना चाहता है, वह सब उसने उस पत्र में समाहित कर दिए हो कोई भी विषय या बात लिखने से नहीं रह जाए।
6. प्रभावशीलता:-
पत्र ऐसा होना चाहिए, कि वह पाठक या प्राप्त करता पर अपना प्रभाव छोड़े। इसके लिए पत्र लेखक को प्रभावी भाषा के साथ-साथ प्रभावी शैली को अपनाना चाहिए।
7. बाह्य सज्जा:-
उपयुक्त विशेषताओं के साथ बाह्य सज्जा का भी पत्र लेखन मैं अपना महत्व होता है। इस हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।
(1) कागज अच्छे किस्म का हो।
(2) लिखावट सुंदर व स्पष्ट हो।
(3) वर्तनी की त्रुटियां न हो।
(4) विराम चिह्नों का उचित प्रयोग।
(5) तिथि, अभिवादन, अनुच्छेद का उचित प्रयोग आदि।

1. व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्र:-
किसी व्यक्ति द्वारा जब अपने परिवारजनों या मित्रों को कोई पत्र लिखा जाता है तो उसे व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्र कहते हैं। पिता माता या मित्र को पत्र बधाई पत्र निमंत्रण पत्र और संवेदना पत्र व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्रों की श्रेणी में आते हैं।

2. कार्यालयी पत्र
वह पत्र जो किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा किसी अन्य अधिकारी या कर्मचारी को किसी विशेष राजकीय कार्य को करने या जानकारी देने हेतु लिखे जाते हैं, वह कार्यालय या सरकारी पत्र कहलाते हैं।
जैसे:- सामान्य सरकारी पत्र, परिपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक, विज्ञप्ति, कार्यालय आदेश, ज्ञापन, निविदा आदि।

3. व्यावसायिक पत्र
किसी व्यावसायिक संस्था द्वारा किसी अन्य व्यावसायिक संस्था को व्यावसायिक कार्य हेतु लिखा गया पत्र व्यावसायिक पत्र कहलाता है। इस प्रकार के पत्र द्वारा व्यवसायिक पूछताछ मूल्य जानकारी सामान क्रय विक्रय पहुंच आदि के विषय में पत्राचार किया जाता है।

2. नैदानिक मनोविज्ञान (Clinical psychology)

नैदानिक मनोविज्ञान

नैदानिक मनोविज्ञान, मनोवैज्ञानिक आधार वाले संकट या दुष्क्रियता से बचाव तथा राहत प्रदान करने या व्यक्तिपरक स्वास्थ्य तथा व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा देने वाला एक एकीकृत विज्ञान, सिद्धांत तथा नैदानिक ज्ञान है।[1][2] इस पद्धति के केंद्र में होते हैं मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन तथा मनोचिकित्सा; यद्यपि नैदानिक मनोवैज्ञानिक, अनुसंधान, शिक्षण, परामर्श, विधि चिकित्साशास्त्र संबंधी साक्ष्य (forensic testimony) तथा कार्यक्रम विकास एवं प्रशासन में भी संलिप्त होते हैं।[3] कई देशों में नैदानिक मनोविज्ञान एक नियंत्रित मानसिक स्वास्थ्य पेशा है।

इस क्षेत्र का आरंभ, प्रायः वर्ष 1896 में पेंसिल्वैनिया विश्वविद्यालय में लाइटनर विट्मर (Lightner Witmer) द्वारा प्रथम मनोवैज्ञानिक चिकित्सालय की स्थापना के साथ माना जाता है। 20वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में नैदानिक मनोविज्ञान मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन पर केंद्रित था, जिसमें उपचार पर कम ध्यान दिया जाता. 1940 के दशक के बाद, जब द्वितीय विश्व युद्ध में प्रशिक्षित चिकित्सकों की बड़ी संख्या में आवश्यकता हुई, तब इसमें बदलाव आया। तब से लेकर आज तक दो प्रमुख शैक्षणिक प्रारूपों का विकास हुआ- पीएचडी विज्ञान-चिकित्सक प्रारूप (नैदानिक अनुसंधान पर केंद्रित) और मनोवैज्ञानिक (Psy.D.)- चिकित्सक-विद्वान प्रारूप (नैदानिक चिकित्सा पर केंद्रित). नैदानिक मनोवैज्ञानिक अब मनोचिकित्सा के विशेषज्ञ माने जाते हैं, तथा वे सामान्यतः चार प्रमुख प्राथमिक सैद्धांतिक अभिमुखन- मनोगतिकी, मानविकी, व्यवहार उपचार/संज्ञानात्मक स्वभावजन्य तथा प्रणालियों या पारिवारिक उपचारों में प्रशिक्षित होते हैं।


इतिहास
मुख्य लेख : मनोविज्ञान का इतिहास और #मनश्चिकित्सा का इतिहास


मनोवैज्ञानिक संकट के लिए कई 18 सी. उपचार छद्म वैज्ञानिक विचारों पर आधारित हैं जैसे मस्तिष्क - विज्ञान.
यद्यपि आधुनिक, वैज्ञानिक मनोविज्ञान की शुरुआत वर्ष 1879 में विल्हम वुंड (Wilhelm Wundt) द्वारा स्थापित प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला के बाद से माना जाता है, जहां बहुत पहले से मौजूद मानसिक तनाव के मूल्यांकन तथा उपचार-विधियों की खोज का प्रयास किया गया। सबसे पहले दर्ज तरीकों में शामिल था धार्मिक, चमत्कारी तथा/या चिकित्सीय दृष्टिकोणों का एक संयोजन.[4] ऐसे चिकित्सकों के आरंभिक उदाहरणों में शामिल हैं पतंजलि, पद्मसंभव,[5] रैजेस (Rhazes), ऐविसेना (Avicenna),[6] तथा रूमी (Rumi).[7]

19 शताब्दी के आरंभ में कोई व्यक्ति अपने सिर की जांच करवा सकता था जो फ्रेनोलॉजी (phrenology), खोपड़ी के आकार द्वारा व्यक्तित्व का अध्ययन, के जरिए किया जाता था। अन्य लोकप्रिय उपचारों में मुखाकृति विज्ञान - चेहरे के आकार का अध्ययन - तथा सम्मोहन (mesmerism), चुंबकों की मदद से मेस्मर उपचार शामिल थे। अध्यात्मवाद तथा फिनीज किम्बी (Phineas Quimby) का “मानसिक आरोग्य” भी लोकप्रिय था।[8]

जहां वैज्ञानिक समुदायों ने अंततः इन सभी विधियों को ख़ारिज कर दिया, शैक्षणिक मनोवैज्ञानिक भी गंभीर मानसिक रोगों के प्रति चिंतित नही था। शरण-स्थान आंदोलन (asylum movement) में उस क्षेत्र में पहले से ही मनःचिकित्सा तथा तंत्रिका-विज्ञान के विकसित हिस्सों का दखल था।[4] 19वीं शताब्दी के बाद से, जब सिग्मंड फ्रायड (Sigmund Freud) ने वियेना में “वार्तालाप उपचार” ("talking cure") को विकसित किया, मनोविज्ञान का प्रथम वैज्ञानिक नैदानिक अनुप्रयोग आरंभ हुआ।

प्रारंभिक नैदानिक मनोविज्ञान
लाइटनर विट्मर आधुनिक नैदानिक मनोविज्ञान के पिता हैं।
18वी शताब्दी के उत्तरार्ध में मनोविज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन विश्वविद्यालयों के प्रयोगशालाओं में भली-भांति स्थापित हो रहा था। यद्यपि छिट-पुट रूप से एक व्यावहारिक मनोविज्ञान के लिए आवाज उठाई जा रही थी, पर सामान्य क्षेत्र ने इस विचार पर असहमति जताई तथा केवल “शुद्ध” विज्ञान को ही प्रतिष्ठित कार्यप्रणाली के रूप में माना.[4] हालांकि जब वुंड (Wundt) के एक पूर्व छात्र तथा पेन्सिल्वैनिया विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष लाइटनर विट्मर (1867–1956) वर्तनी की समस्या के शिकार एक छोटे लड़के के उपचार के लिए सहमत हुए, तब इसमे बदलाव आया। उसके सफल उपचार के परिणामस्वरूप विट्मर ने वर्ष 1896 में पेन (Penn) में प्रथम मनोवैज्ञानिक चिकित्सालय की स्थापना की, जो सीखने की समस्या से ग्रस्त छोटे बच्चों के प्रति समर्पित था।[9] दस वर्ष पश्चात विट्मर ने इस क्षेत्र के प्रथम जर्नल, द साइकोलॉजिकल क्लिनिक (The Psychological Clinic) की नींव डाली, जिसमें उन्होंने “क्लिनिकल साइकोलॉजी (नैदानिक मनोविज्ञान)” शब्द का प्रथम प्रयोग किया, जिसे “परिवर्तन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किए प्रेक्षण या प्रयोग द्वारा व्यक्तियों का अध्ययन” के रूप में परिभाषित किया गया।[10] यह क्षेत्र विटमर के उदाहरण के अनुपालन के लिए धीमा था, पर वर्ष 1914 तक अमेरिका में इस तरह के 26 चिकित्सालय खुल चुके थे।[11]

भले ही नैदानिक मनोविज्ञान का प्रयोग बढ़ रहा था, पर गंभीर मानसिक तनाव वाले रोग मनःचिकित्सा तथा तंत्रिका विज्ञान के अधीन रहे.[12] हालांकि नैदानिक मनोवैज्ञानिक अपने मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन की बढ़ती क्षमता के कारण निरंतर रूप से इस क्षेत्र में कार्य करते रहे. मूल्यांकन विशेषज्ञ के रूप में मनोवैज्ञानिकों की प्रतिष्ठा प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बढ़ी, जब दो बुद्धि परीक्षण (intelligence test), आर्मी अल्फा (Army Alpha) तथा आर्मी बीटा (Army Beta) [क्रमशः मौखिक तथा अमौखिक क्षमता की जांच] का विकास हुआ, जिसका उपयोग रंगरूटों की बड़ी संख्या पर किया जा सका.[8][9] इन परीक्षणों की भारी सफलता के कारण, अगली चौथाई सदी तक यानि दूसरे विश्वयुद्ध द्वारा इस क्षेत्र को उपचार की ओर अग्रसर करने तक, मूल्यांकन, नैदानिक मनोविज्ञान का प्रमुख विषय बना रहा.

आरंभिक पेशेवर संगठन
वर्ष 1917 में ‘अमेरिकन असोसिएशन ऑफ क्लिनिकल साइकोलॉजी’ की स्थापना के बाद से इस क्षेत्र ने “क्लिनिकल साइकोलॉजी (नैदानिक मनोविज्ञान)” नाम के तहत संगठित होना शुरु किया। यह केवल वर्ष 1919 तक चला, जिसके पश्चात ‘अमेरिकन साइकोलॉजिकल असोसिएशन’ (जी स्टैन्ले हॉल द्वारा 1892 में स्थापित) ने नैदानिक मनोविज्ञान के एक भाग का विकास किया, जिसने वर्ष 1927 तक प्रमाणन प्रदान किया।[11] अगले कुछ वर्षों तक, वर्ष 1930 में विभिन्न असंबद्ध मनोवैज्ञानिक संगठनों के ‘अमेरिकन असोसिएशन ऑफ अप्लायड साइकोलॉजी’ के रूप में एकत्र होने तक, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में APA के पुनर्गठन तक मनोवैज्ञानिकों के लिए एक प्रमुख मंच रहा, इस क्षेत्र में धीमा विकास हुआ।[13] वर्ष 1945 में APA ने वर्तमान में ‘डिविजन 12’ के नाम से जाने जाने वाले संगठन का निर्माण किया, जो इस क्षेत्र का प्रमुख संगठन रहा. मनोवैज्ञानिक सोसाइटी तथा अन्य अंग्रेजी भाषी देशों के संगठनों ने ऐसे ही विभागों (डिविजन) का विकास किया, जिनमें ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड जैसे देश भी शामिल थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध तथा उपचार का एकीकरण

चयन के प्रयोजनों के लिए अमेरिकी सेना ने एक नैदानिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा मनोवैज्ञानिक की परीक्षा आयोजित की.
द्वितीय विश्वयुद्ध जब आरंभ हुआ, फौजों ने एक बार फिर नैदानिक मनोवैज्ञानिकों की मांग की. चूंकि सैनिक युद्ध से वापस लौटने लगे, मनोवैज्ञानिकों ने “शेल शॉक” (बाद में इसे आघात पश्चात के तनाव रोग का नाम दे दिया गया) नामक मनोवैज्ञानिक आघात पर ध्यान देना शुरु किया, जिन्हें जल्द से जल्द भली-भांति ठीक किया जाता रहा.[9] क्योंकि चिकित्सक (मनोचिकित्सक समेत) शारीरिक जख्मों के इलाज में काफी व्यस्त थे, इस स्थिति से उबरने में मदद के लिए मनोवैज्ञानिकों को बुलाया जाता था।[14] वहीं महिला मनोवैज्ञानिकों (जो युद्ध कार्यों से बाहर थीं) ने मिलकर ‘नेशनल काउंसिल ऑफ वीमन साइकोलॉजिस्ट’ का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य था समुदायों को युद्ध के तनाव से उबरने में मदद करना और युवा माँ को बच्चों की देखभाल पर परामर्श प्रदान करना.[10] युद्ध के पश्चात अमेरिका के ‘वेटरंस ऐडमिनिस्ट्रेशन’ ने हजारों सेवानिवृत्त सैनिकों के आवश्यक उपचार हेतु मदद के लिए चिकित्सीय-स्तर के मनोवैज्ञानिकों को प्रशिक्षित करने वाले कार्यक्रमों में भारी निवेश किया। परिणामस्वरूप, जिस अमेरिका के पास वर्ष 1946 में नैदानिक मनोवैज्ञान पर आधारित विश्वविद्यालय कार्यक्रम नहीं थे, वहीं 1950 में प्रदान किए जाने वाले कुल पीएचडी उपाधि में आधे नैदानिक मनोविज्ञान में थे।[10]

द्वितीय विश्वयुद्ध ने न केवल अमेरिका में, बल्कि पूरी दुनिया में नैदानिक मनोविज्ञान में नाटकीय परिवर्तन लाया। मनोविज्ञान की स्नातकीय शिक्षा में नैदानिक मनोविज्ञान में पीएचडी कार्यक्रमों हेतु मनःचिकित्सा विज्ञान तथा वर्ष 1947 के चिकित्सक प्रारूप, जिसे आज बोल्डर मॉडल (Boulder Model) कहा जाता है, आधारित शोध उद्देश्य को शामिल किया जाने लगा.[15] द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात, विशेषकर ‘नेशनल हेल्थ सर्विस’[16] के परिप्रेक्ष्य में ब्रिटेन में नैदानिक मनोविज्ञान अमेरिका की तरह ही विकसित हुआ, जिसमें योग्यताओं, मानकों तथा वेतनों को ब्रिटिश साइकोलोजिकल सोसाइटी द्वारा प्रबंधित किया गया।[17]

मनोविज्ञान में डॉक्टर की उपाधि का विकास
1960 के दशक तक मनःचिकित्सा नैदानिक मनोविज्ञान में अतःस्थापित हो चुकी थी, पर कई पीएचडी शिक्षण प्रारूप अनुसंधान की बजाए चिकित्सा में रुचि रखने वालों को आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान नहीं कर रहे थे। एक बहस छिड़ी हुई थी कि अमेरिका में मनोविज्ञान के क्षेत्र ने नैदानिक चिकित्सा-कार्य में डिग्री प्रदान करने वाले सुस्पष्ट प्रशिक्षण का विकास किया है। चिकित्सा-कार्य आधारित डिग्री पर 1965 में चर्चा हुई तथा अल्प रूप से इलियनिस विश्वविद्यालय (University of Illinois) में 1968 में एक शुरुआती कार्यक्रम के लिए स्वीकृति मिली.[18] इसके बाद कई ऐसे कार्यक्रमों की स्थापना हुई तथा वर्ष 1973 में मनोविज्ञान में व्यावसायिक कार्यक्रमों के वेल सम्मेलन (Vail Conference on Professional Training in Psychology) में नैदानिक मनोविज्ञान के चिकित्सक-विद्वान प्रारूप (Practitioner-Scholar Model of Clinical Psychology)- या वेल मॉडल में मनोविज्ञान में डॉक्टर की डिग्री (Psy.D.) को मान्यता दी गई।[19] यद्यपि शोध कुशलता तथा मनोविज्ञान की एक वैज्ञानिक समझ को शामिल करने के लिए प्रशिक्षण जारी रहेगा, पर चिकित्सा विज्ञान, दंतचिकित्सा विज्ञान तथा कानून की तरह ही उद्देश्य उच्च प्रशिक्षित कर्मियों का निर्माण रहेगा. Psy.D. प्रारूप पर स्पष्ट रूप से आधारित पहले कार्यक्रम की स्थापना रुटगर्स विश्वविद्यालय में की गई।[18] आज नैदानिक मनोविज्ञान विषय में पंजीकृत अमेरिकी स्नातक छात्रों में लगभग आधे Psy.D. कार्यक्रमों के हैं।[19]

एक परिवर्तनशील पेशा
1970 के दशकों से नैदानिक मनोविज्ञान एक मुखर व्यवसाय तथा अध्ययन के शैक्षणिक क्षेत्र में निरंतर रूप से विकसित होता रहा. यद्यपि चिकित्सा-कार्य में लिप्त नैदानिक मनोवैज्ञानिकों की सटीक संख्या अज्ञात है, पर 1974 तथा 1990 के बीच अमेरिका में अनुमानतः यह 20,000 बढ़कर 63,000 हो गई।[20] नैदानिक मनोवैज्ञानिक जराविज्ञान (gerontology), क्रीड़ा तथा आपराधिक न्याय प्रणाली की समस्याओं के निदान पर ध्यान केंद्रित करने के साथ मूल्यांकन तथा मनःचिकित्सा के भी विशेषज्ञ बने हुए हैं। एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है स्वास्थ्य मनोविज्ञान, जो पिछ्ले दशक में नैदानिक मनोवैज्ञानिकों के लिए सर्वाधिक तेजी से विकसित होने वाला रोजगार व्यवसाय रहा.[8] अन्य प्रमुख परिवर्तनों में शामिल हैं मानसिक स्वास्थ्य देखभाल पर प्रबंधित उपचार का प्रभाव; बहु-सांस्कृतिक तथा विविध आबादियों से जुड़ी जानकारियों की अहमियत का बढ़ता एहसास; तथा निर्धारित साइकोट्रॉपिक उपचार के प्रति बढ़ता विशेषाधिकार.

पेशेवर चिकित्सा-कार्य
नैदानिक मनोवैज्ञानिक कई प्रकार की पेशागत सेवाएं पेश करता हैं, जिनमें शामिल है:[10]

मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन तथा जांच का प्रबंधन तथा व्याख्या.
मनोवैज्ञानिक शोध का आयोजन
परामर्श (विशेषकर स्कूलों तथा व्यावसायों के साथ)
बचाव तथा उपचार कार्यक्रमों का विकास
कार्यक्रम प्रशासन
विशेषज्ञ को साक्ष्य प्रदान करना (न्यायालयिक मनोविज्ञान)
मनोवैज्ञानिक उपचार प्रदान करना (मनःचिकित्सा)
शिक्षण
व्यवहार में नैदानिक मनोविज्ञान व्यक्तियों, दंपत्तियों, परिवारों या विभिन्न व्यवस्थाओं के समूहों, निजी चिकित्सा-कार्यों समेत, अस्पतालों, मानसिक स्वास्थ्य संगठनों, स्कूलों, व्यवसायों एवं गैर-लाभ वाली एजेंसियों के साथ कार्य कर सकते हैं। अनुसंधान तथा शिक्षण में जुटे अधिकतर नैदानिक मनोवैज्ञानिक ऐसा कॉलेज या विश्वविद्यालय के अंतर्गत करते हैं। नैदानिक मनोवैज्ञानिक किसी विशेष क्षेत्र- विशेषज्ञता के सामान्य क्षेत्र, की विशेषज्ञता चुन सकते हैं, उनमें से कुछ बोर्ड प्रमाणन प्राप्त कर सकते हैं, जिनमें शामिल है:[21]

बाल तथा किशोर
परिवार तथा संबंध परामर्श
विधि चिकित्साशास्त्र सम्बंधी
स्वास्थ्य
तंत्रिका-मनोवैज्ञानिक रोग (Neuropsychological disorders)
संगठन तथा व्यवसाय
स्कूल
विशेष रोग (जैसे, आघात, व्यसन, भोजन, शयन, यौनकर्म, नैदानिक अवसाद, चिंता, या भीति)
खेल
चिकित्सा-कार्य हेतु प्रशिक्षण तथा प्रमाणन

नैदानिक मनोविज्ञान में औपचारिक शिक्षा की पेशकश सबसे पहले पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय ने किया था।
मुख्य लेख : प्रशिक्षण और लाइसेंस का देनानैदानिक मनोवैज्ञानिक
नैदानिक मनोवैज्ञानिक मनोविज्ञान के साथ ही स्नातकोत्तर प्रशिक्षण तथा/या नैदानिक स्थापन एवं निरीक्षण के सामानज्ञ (generalist) कार्यक्रमों का अध्ययन करते हैं। प्रशिक्षण की अवधि दुनिया भर में अलग-अलग होती है, जो चार वर्ष के उत्तर-स्नातक पर्यवेक्षित चिकित्सा-कार्य[22] से लेकर तीन से छः वर्षों के डॉक्टर की उपाधि तक होती है, जिसमें नैदानिक स्थापन शामिल होती है।[23] अमेरिका में नैदानिक मनोवैज्ञानिक के लगभग आधे छात्र पीएचडी कार्यक्रमों में प्रशिक्षित किए जा रहे हैं- यह एक ऐसा प्रारूप है, जिसमें अनुसंधान पर बल डाला जाता है; अन्य आधे छात्र Psy.D कार्यक्रम के होते हैं, जो चिकित्सा-कार्य (चिकित्सा विज्ञान तथा कानून के समान पेशेवर डिग्री) पर केंद्रित होता है।[19] दोनों ही प्रारूप को ‘अमेरिकन साइकोलॉजिकल असोसिएशन’[24] तथा कई अन्य अंग्रेजी-भाषी मनोवैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई है। कुछ संख्या में ऐसे स्कूल भी हैं, जो नैदानिक मनोविज्ञान के कार्यक्रमों को उपलब्ध कराते हैं और मास्टर डिग्री प्रदान करते हैं, जो उत्तर-स्नातक के लिए दो से तीन वर्षों का समय लेते हैं।

यूके में नैदानिक मनोवैज्ञानिक नैदानिक मनोविज्ञान में डॉक्टर की डिग्री (D.Clin.Psych.) पूरी करते हैं, जो नैदानिक तथा अनुसंधान अंगों में चिकित्सा-कार्य करने वाला डॉक्टरेट होता है। यह तीन वर्षों का पूर्णकालिक वेतनमान वाला कार्यक्रम होता है, जो नेशनल हेल्थ सर्विस (NHS) द्वारा प्रायोजित किया जाता है एवं विश्वविद्यालकों तथा NHS में उपलब्ध होता है। इन कार्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए काफी प्रतिस्पर्धा होती है तथा इसके लिए मनोविज्ञान की कम से कम तीन वर्षों वाली एक अंतरस्नातक डिग्री तथा कुछ अनुभव की आवश्यकता होती है, जो प्रायः NHS में सहायक मनोवैज्ञानिक (Assistant Psychologist) या शैक्षणिक समुदाय में शोध सहायक (Research Assistant) के रूप में हो सकता है। आवेदकों के लिए किसी शिक्षण पाठ्यक्रम हेतु स्वीकृत होने तक कई बार आवेदन करना सामान्य बात होती है, क्योंकि हर वर्ष कुल आवेदकों के केवल पांचवे हिस्से का ही चयन हो पाता है।[25] ये नैदानिक मनोवैज्ञानिक डॉक्टर की डिग्रियां ‘ब्रिटिश सायकोलॉजिकल सोसाइटी’ तथा ‘हेल्थ प्रोफेशन्स काउंसिल’ (एचपीसी (HPC)) द्वारा मान्यताप्रदत्त होती हैं। यूके में चिकित्सा-कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों के लिए HPC एक वैधानिक विनियामक निकाय होता है। जो नैदानिक मनोविज्ञान में सफलतापूर्वक डॉक्टर की डिग्री प्राप्त कर चुके होते हैं, वे HPC में नैदानिक मनोवैज्ञानिक बनने के लिए आवेदन कर सकते हैं।

नैदानिक मनोविज्ञान में चिकित्सा-कार्य करने के लिए, अमेरिका, कनाडा, यूके तथा कई अन्य देशों में अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) की आवश्यकता होती है। यद्यपि अमेरिका का हर राज्य आवश्यकताओं तथा लाइसेंस के आधार पर थोड़ा भिन्न है, जिसमें तीन मौलिक तत्त्व हैं:[26]

किसी मान्यताप्राप्त स्कूल से उचित डिग्री के साथ स्नातक
पर्यवेक्षित नैदानिक अनुभव या इंटर्नशिप की पूर्णता
एक लिखित परीक्षा उत्तीर्ण करना, तथा कुछ राज्यों में मौखिक परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी होती है।
सभी अमेरिकी राज्यों तथा कनाडाई प्रातों के लाइसेंस प्रदान करने वाले बोर्ड ‘असोसिएशन ऑफ स्टेट एंड प्रोविंसियल सायकोलॉजी बोर्ड’ (ASPPB) के सदस्य होते हैं, जिसने ‘एग्जामिनेशन फॉर प्रोफेशनल प्रैक्टिस इन सायकोलॉजी’ (EPPP) का गठन किया तथा अब इसका संचालन करता है। कई राज्यों को EPPP के अलावा अन्य परीक्षाओं की भी आवश्यकता होती है, जैसे विधिशास्त्र (अर्थात मानसिक स्वास्थ्य कानून) की परीक्षा तथा/या कोई मौखिक परीक्षा.[26] अधिकतर राज्यों को लाइलेंस पुनर्नवीनीकृत करवाने के लिए प्रतिवर्ष लगातार रूप से कुछ निश्चित शैक्षिक क्रेडिट की आवश्यकता होती है, जो कई माध्यमों से प्राप्त की जा सकती है, जैसे परीक्षित कक्षाएं (audited classes) लेना तथा स्वीकृत कार्यशालाओं में भाग लेना. नैदानिक मनोवैज्ञानिकों को चिकित्सा-कार्य करने हेतु मनोवैज्ञानिक लाइसेंस की जरूरत होती है, यद्यपि ये लाइसेंस मास्टर स्तरीय डिग्री के साथ प्राप्त किए जा सकते है, जैसे ‘मैरिज एंड फेमिली थेरॉपिस्ट’(MFT), ‘लाइसेंस्ड प्रोफेशनल काउंसलर’ (LPC), तथा ‘लाइसेंस्ड साइकोलॉजिकन असोसिएट’ (LPA).[27]

यूके में नैदानिक मनोवैज्ञानिक हेतु ‘हेल्थ प्रोफेशन्स काउंसिल’ (HPC) में पंजीकरण करवाना आवश्यक होता है। यूके में चिकित्सा-कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों के लिए HPC वैधानिक नियामक होता है। यूके में निम्न उपाधियां “रजिस्टर्ड सायकोलॉजिस्ट” तथा “प्रेक्टिशनर सायकोलॉजिस्ट” कानूनन प्रतिबंधित हैं; इसके अलावा “क्लिनिकल सायकोलॉजिस्ट” की विशेषज्ञता उपाधि भी कानूनन प्रतिबंधित है।

मूल्यांकन
कई नैदानिक मनोवैज्ञानिकों के लिए विशेषज्ञता का महत्वपूर्ण क्षेत्र होता है मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन, तथा यह संकेत मिलते हैं कि लगभग 91% मनोवैज्ञानिक इस प्रमुख नैदानिक चिकित्सा-कार्य में शामिल हैं।[28] ऐसा मूल्यांकन प्रायः सेवा में किया जाता है ताकि मनोवैज्ञानिक या व्यवहारगत समस्यायों के बारे में संकल्पनाओं के निर्माण तथा उनकी गहन जानकारी प्राप्त की जा सके. इस प्रकार ऐसे मूल्यांकनों के परिणामों का उपयोग प्रायः सेवा में सूचना उपचार योजना के प्रति सामान्य धारणाओं (रोगनिदान की बजाए) को निर्मित करने के लिए किया जाता है। इन विधियों में औपचारिक जांच उपाय, साक्षात्कार, पूर्व के रिकॉर्डों का पुनरीक्षण, नैदानिक अवलोकन तथा शारीरिक परीक्षण शामिल हैं।[2]

वास्तव में कई प्रकार के मूल्यांकन संसाधन मौजूद हैं, पर केवल कुछ को ही उच्च वैधता (अर्थात, आकलन की दावे को आकलित करने हेतु जांच) तथा विश्वसनीयता (अर्थात, एकरूपता) प्राप्त है। ये आकलन सामान्यतः कई वर्गों में एक के अंतर्गत आते हैं, जिनमें निम्न भी शामिल हैं:

बुद्धि तथा उपलब्धि जांच (Intelligence & achievement tests) – इन जांचों को सामान्य समूहों की तुलना में कुछ विशेष प्रकार के संज्ञानात्मक कार्यों (प्रायः ‘आइक्यू’ के नाम से जाना जाता है) के आकलन के लिए तैयार किया जाता है। ये जांच, जैसे WISC-IV, ऐसे सामान्य ज्ञान, वाचन कुशलता, स्मृति, ध्यान अवधि, तार्किक वितर्कों तथा दृश्य/त्रिविम बोध जैसे लक्षणों का आकलन करने का प्रकास करती हैं। कुछ निश्चित प्रकार के प्रदर्शनों, विशेषकर विद्यालयी प्रदर्शनों को ठीक-ठीक बताने के लिए कई जांचों को प्रदर्शित किया गया है।[28]
व्यक्तित्व जांच (Personality tests) – व्यक्तित्व की जांच, ये सामन्यतः दो वर्गों में आते हैं: वस्तुनिष्ठ तथा परियोजनात्मक (projective). वस्तुनिष्ठ आकलन जैसे MMPI, सीमित उत्तरों पर आधारित होते हैं- जैसे हां/नहीं, सही/गलत या रेटिंग स्केल- जो उन अंकों की गणना की अनुमति देता है, जिसकी नियामक समूह के साथ तुलना की जा सकती है। परियोजनात्मक जांच, जैसे रॉर्शाक इंकब्लॉट (Rorschach inkblot) जांच, खुले सिरे वाले उत्तरों की अनुमति देती है, जो प्रायः अनेकार्थी अनुक्रियाओं पर आधारित, अनुमानतः सारगर्भित अ-चेतन शरीर-क्रियावैज्ञानिक गतिकी होती है।
तंत्रिका-मनोवैज्ञानिक जांच (Neuropsychological tests) – तंत्रिका-मनोवैज्ञानिक जांचों में ऐसे विशेष रूप से तैयार किए कार्य होते हैं, जिनका प्रयोग एक विशेष मस्तिष्क संरचना या पथ से जुड़े मनोवैज्ञानिक कार्यों के आकलन में किया जाता है। इन्हें विशेषरूप से किसी जख्म या बीमारी के बाद की ऐसी क्षति के आकलन के लिए किया जाता है, जो तंत्रिकासंज्ञानात्मक क्रियाओं को प्रभावित करती है, या शोधकार्यों में प्रायोगिक समूहों के मध्य तंत्रिका-मनोवैज्ञानिक क्षमताओं को विभेदित करती है।
नैदानिक अवलोकन (Clinical observation) – नैदानिक मनोवैज्ञानिकों को व्यवहारों के अध्ययन द्वारा भी आंकड़े एकत्र करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। यहां तक कि औपचारिक साधनों के प्रयोग में भी, जिसे संरचनात्मक या असंरचनात्मक रूप में प्रयुक्त किया जाता है, नैदानिक साक्षात्कार मूल्यांकन का एक अहम हिस्सा होता है। ऐसा मूल्यांकन कुछ निश्चित क्षेत्रों पर केंद्रित होता है, जैसे सामान्य हाव-भाव तथा व्यवहार, मानसिक अवस्था तथा प्रभाव, बोध, समझ, अभिमुखन, अंतर्दृष्टि, स्मृति तथा संवाद के तत्त्व. औपचारिक साक्षात्कार वाला एक मनोविकारी उदाहरण है मानसिक दशा का परीक्षण, जिसका प्रायः मनोविकृति में उपचार के साधन तथा अगली जांच के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।[28]
रोग-नैदानिक धारणाएं
इन्हें भी देखें: मानसिक क्रमभंग
मूल्यांकन के पश्चात नैदानिक मनोवैज्ञानिक प्रायः एक रोग-नैदानिक धारणा प्रस्तुत करते हैं। कई देश इंटरनैशनल स्टैटिस्टिकल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज एंड रिलेटेड हेल्थ प्रॉब्लम्स ’ (ICD-10) का इस्तेमाल करते हैं, जबकि अमेरिका में प्रायः डायग्नोस्टिक एंड स्टैटिस्टिकल मैनुअल ऑफ मेन्टल डिसॉर्डर (the DSM version IV-TR) का प्रयोग किया जाता है। दोनों ही धारणाएं चिकित्सीय संकल्पनाएं तथा शर्तों को मानती हैं तथा कहती हैं कि कुछ वर्गीय रोग हैं, जिनका विवरणात्मक मानदंडों की तय सूचियों द्वारा पता लगाया जा सकता है।[29]

मानव विभेदों (व्यक्तित्व के पांच कारक वाले प्रारूप[29][30]) के प्रयोगसिद्ध रूप से अनुप्रमाणित “विमीय प्रारूप” (“डायमेंशनल मॉडल”) तथा एक “मनो-सामाजिक प्रारूप”, जो परिवर्तनशील, अंतरविषयिक दशाओं को अधिक ध्यान में रखता है, आधारित प्रारूप समेत कई नए प्रारूपों की चर्चा चल रही है।[31] इन प्रारूपों के समर्थक दावा करते हैं कि रोगों की चिकित्सा-वैज्ञानिक संकल्पना पर निर्भर हुए बिना वे अधिक रोग-नैदानिक लोचशीलता तथा नैदानिक उपयोगिता उपलब्ध कराएंगे. हालांकि वे यह भी मानते हैं कि ये प्रारूप अभी इतने मुखर नहीं हैं कि इनका व्यापक उपयोग किया जा सके और इसे निरंतर विकास की और बढ़ते रहना चाहिए.

कुछ नैदानिक मनोवैज्ञानिक रोग-निदान की ओर प्रवृत्त नहीं होते, बल्कि वे संरूपण (formulation) का उपयोग करते हैं, जिनमें रोगियों या ग्राहकों द्वारा अनुभव की गई समस्याओं के विशिष्ट ढांचे शामिल होते हैं, जो व्यापक पूर्व-प्रवृत्ति (encompassing predisposing), अवक्षेपण (precipitating) तथा सातत्य (बनाए रखा) वाले कारकों पर आधारित होते हैं।[32]

नैदानिक सिद्धांत एवं हस्तक्षेप
right|frame|नैदानिक मनोवैज्ञानिक व्यक्तियों, बच्चों, परिवारों, जोड़ों, या छोटे समूहों के साथ काम करते हैं।

मुख्य लेख : मनश्चिकित्सा
मनोचिकिसा के अंतर्गत चिकित्सक और रोगी – प्राय: कोई व्यक्ति, दंपत्ति, परिवार अथवा कोई छोटा समूह- के बीच औपचारिक संबंध होता है, जिसमें रोगोपचारी गठबंधन बनाने, मनोवैज्ञानिक समास्याओं की प्रकृति के अन्वेषण तथा सोचने, महसूस करने और व्यवहार के नए तरीकों को बढ़ावा देने की अनेक प्रक्रियाओं को व्यवहार में लाया जाता है।[2][33]

चिकित्सकों के पास स्रोत के रूप में वैयक्तिक हस्तक्षेपों की एक विशाल श्रृंखला होती है जो प्राय: उनके प्रशिक्षण द्वारा निर्देशित होती है, उदाहरण के लिए एक संज्ञानात्मक व्यवहारपरक उपचार विधि (CBT) का चिकित्सक द्वारा तनावकारी संज्ञानों को दर्ज करने के लिए कार्यपन्नों का प्रयोग किया जा सकता है, मनोविश्लेषक द्वारा मुक्त सम्मिलन को प्रोत्साहन दिया जा सकता है जबकि गेस्टाल्ट (Gestalt) तकनीकों में प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक द्वारा रोगी और चिकित्सक के बीच त्वरित अंतर्क्रियाओं पर बल दिया जा सकता है। नैदानिक मनोवैज्ञानिक प्राय: अपने कार्य को शोध के प्रमाण तथा परिणाम अध्ययनों एवं प्रशिक्षित चिकित्सीय निर्णय पर आधारित करना चाहते हैं। यद्यपि दर्जनों मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धतीय अभिमुखन हैं, उनके अंतर दो आधार पर वर्गीकृत किए जा सकते हैं: अंतर्दृष्टि बनाम क्रिया और अंत:-सत्र बनाम बाह्य-सत्र.[10]

अंतर्दृष्टि – व्यक्ति के विचारों और भावनाओं को दर्शाने वाली प्रवृत्तियों को समझने पर बल दिया जाता है (उदाहरण के लिए मनोगतिकी चिकित्सा पद्धति)
क्रिया – व्यक्ति के सोचने और कार्य करने के तरीके को बदलने पर बल दिया जाता है (उदाहरण के लिए निदान केन्द्रित चिकित्सा पद्धति, संज्ञानात्मक व्यवहारपरक चिकित्सा पद्धति)
अंत:-सत्र – हस्तक्षेप रोगी और चिकित्सक के बीच तत्काल अंतर्क्रिया पर केन्द्रित होते हैं (उदाहरण के लिए मानवीय पद्धति, गेस्टाल्ट चिकित्सा पद्धति)
बाह्य-सत्र – चिकित्सा पद्धतीय कार्य का एक बड़ा भाग सत्र के बाहर संपन्न होता है (उदाहरण के लिए बिब्लियोथेरैपी (bibliotherapy), तार्किक भावात्मक व्यवहार उपचार पद्धति)
प्रयुक्त विधियां संबद्ध जनसंख्या तथा समस्या के संदर्भ और उसकी प्रकृति के अनुसार भी भिन्न-भिन्न होती हैं। उपचार पद्धति सदमाग्रस्त बच्चे, अवसादग्रस्त किंतु उच्च कार्यशील वयस्क, लोगों का समूह जो बड़े परावलम्बन से उबर रहा हो और भयानक विभ्रमों से पीड़ित अवस्था वाले रोगियों के बीच अलग-अलग रूपों में होगी. मनोचिकित्सापद्धति की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिक निभाने वाले अन्य तत्व हैं- पर्यावरण, संस्कृति, आयु, संज्ञानात्मक संक्रिया, अभिप्रेरण और अवधि (संक्षिप्त अथवा दीर्घकालीन चिकित्सा).[33][34]

चार प्रमुख शाखाएं
यह क्षेत्र आवश्यक रूप से चार प्रमुख चिकित्सा शाखाओं द्वारा प्रशिक्षण और चिकित्साकार्य के रूप में संचालित है: मनोगतिकी, मानवतावाद, व्यवहारपरक/संज्ञानात्मक व्यवहारपरक, तथा पारिवारिक चिकित्सा पद्धति की प्रणालियां.[2]

मनोगतिकी
मुख्य लेख : मनोगत्यात्मक मनश्चिकित्सा
मनोगतिकी परिप्रेक्ष्य का विकास सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) के मनोविश्लेषण से हुआ। मनोविश्लेषण का मुख्य विषय है अचेतन को चेतन बनाना – रोगी को उसके अपने उद्वेगों (जैसे कि यौन एवं आक्रामकता से संबंधित) तथा उनपर नियंत्रण रखने वाले अनेक कारकों से परिचित कराना.[33] मनोविश्लेषक प्रक्रियाओं के मुख्य औजार हैं- मुक्त सम्मिलन तथा रोगी का चिकित्सक की ओर स्थानांतरण, जिन्हें किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति (जैसे- माता-पिता) के बारे में अचेतन विचारों अथवा भावनाओं को धारण करने और उन्हें किसी अन्य व्यक्ति की ओर स्थानांतरण करने की प्रवृत्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है। इन दिनों व्यवहार में लाए जाने वाले फ्रायडीय मनोविश्लेषण के प्रमुख संस्करणों में शामिल हैं स्व-मनोविज्ञान, अहं-मनोविज्ञान एवं वस्तु संबंध सिद्धांत. ये सामान्य अभिमुखन अब मनोगतिकी मनोविज्ञान के अंतर्गत आते हैं जिनके साथ स्थानांतरण और सुरक्षा का परीक्षण, अचेतन की शक्ति की स्वीकृति और इस बात पर बल देना कि रोगी की वर्तमान मनोवैज्ञानिक दशा के लिए उसके बचपन के दिनों में होने वाले विकास जिम्मेदार हैं – जैसे तथ्य शामिल हैं।[33]

मानवतावाद
मुख्य लेख : मानववादी मनोविज्ञान
मानवतावादी मनोविज्ञान का विकास 1950 के दशक में व्यवहारवाद और मनोविश्लेषणवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इसके मुख्य कारण थे कार्ल रोगर्स (Carl Rogers) का व्यक्ति केन्द्रित उपचार पद्धति (जिसे प्राय: रोगेरियन पद्धति भी कहा जाता है) तथा विक्टर फ्रैंक और रोलो मे (Victor Frankl और Rollo May) द्वारा विकसित अस्तित्ववादी मनोविज्ञान.[2] रोगर्स का विश्वास था कि चिकित्सीय सुधार को अनुभूत करने के लिए रोगी को चिकित्सक से केवल तीन चीजें चाहिए – सामंजस्य, बिना शर्त सकारात्मक सम्मान और चिकित्सीय समझ.[35] परिघटनाविज्ञान, अंतर्विषयकता और प्रथम पुरुष वर्गीकरण का प्रयोग कर मानवतावादी शाखा संपूर्ण व्यक्ति की छवि प्राप्त करना चाहता है न कि व्यक्तित्व का केवल एक अंश.[36] होलिज़्म (holism) का यह पहलू नैदानिक मनोविज्ञान के मानवतावादी व्यवहार के अन्य सामान्य लक्ष्य से संबद्ध है। यह सामान्य लक्ष्य है संपूर्ण व्यक्ति को अखंडित रूप में देखना जिसे स्व-कार्यान्वयन भी कहा जाता है। मानवतावादी विचार के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर पहले से अंतर्निहित क्षमता और संसाधन विद्यमान रहते हैं जो उन्हें एक सबल व्यक्तित्व और स्वयं के बारे में सबल अवधारणा बनाने में मदद करते हैं।[37] मानवतावादी मनोवैज्ञानिकों का मुख्य उद्देश्य है व्यक्ति द्वारा चिकित्सीय संबंध के जरिए इन संसाधनों को स्वयं अपनाए जाने में मदद करना.

व्यवहारपरक और संज्ञानात्मक व्यवहारपरक
मुख्य लेख : संज्ञानात्मक स्वभावजन्य उपचार
मुख्य लेख : आचरण उपचार
संज्ञानात्मक व्यवहारपरक उपचार विधि (CBT) का विकास संज्ञानात्मक उपचार विधि एवं तार्किक भावात्मक व्यवहार उपचार विधि के सम्मिलन से हुआ। ये दोनों विधियां संज्ञानात्मक मनोविज्ञान और व्यवहारवाद से उत्पन्न हुईं. CBT इस सिद्धांत पर आधारित है कि हम किस प्रकार विचार करते हैं (संज्ञान), हम किस प्रकार महसूस करते हैं (भावना) तथा हम किस प्रकार कार्य करते हैं (व्यवहार) – ये सब आपस में एक दूसरे से जुड़ी बाते हैं और ये एक दूसरे के साथ जटिल रूप में अंतर्क्रिया करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, संसार को समझने और उसकी व्याख्या करने के मनुष्य के कुछ व्यावहारिक तरीके (प्राय: ‘स्कीमा ’ अथवा धारणाओं के द्वारा) भावनात्मक तनाव अथवा व्यवहारपरक समस्याओं के कारण बनते हैं। अनेक संज्ञानात्मक व्यवहारपरक उपचार विधियों का उद्देश्य होता है संबद्ध होने अथवा अभिव्यक्त करने की पूर्वाग्रहयुक्त अव्यावहारिक तरीकों की खोज एवं पहचान करना तथा विभिन्न प्रणाली विज्ञानों द्वारा रोगी को उसके इन तरीकों से उबरने में मदद करना ताकि उसे अधिकाधिक खुशहाल जीवन जीने में मदद मिले.[38] इस हेतु कई प्रकार के तकनीक प्रयोग में लाए जाते हैं, जैसे कि सुव्यवस्थित असुग्राहीकरण, सुकराती प्रश्न तथा संज्ञानात्मक प्रेक्षण लॉग का उपयोग. द्वंद्वात्मक व्यवहारविधि तथा संचेतना-आधारित संज्ञानात्मक उपचार विधि सहित CBT की श्रेणी में आने वाले उन्नत उपागम भी विकसित हुए.[39]

व्यवहार उपचार विधि की समृद्ध परंपरा रही है। इस पर सबल प्रमाण के आधार पर भली प्रकार शोध किया गया है। इसकी जड़ें व्यवहारवाद में है। व्यवहार उपचार विधि में पर्यावरणीय घटनाओं से हमारे सोचने और महसूस करने के तरीकों के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। हमारा व्यवहार पर्यावरण के लिए इस पर प्रतिक्रिया देने हेतु परिस्थितियों का निर्माण करता है। कभी-कभी यह प्रतिक्रिया हमारे व्यवहार को वृद्धि- सुदृढ़ीकरण तथा कभी-कभी व्यवहार ह्रास-दंड की ओर ले जाती है। प्राय: व्यवहार चिकित्सक को अनुप्रयुक्त व्यवहार विश्लेषक कहा जाता है। उन्होंने विकासात्मक निर्योग्यताओं से लेकर अवसाद और चिंताजनित रोगों तक का अध्ययन किया है। मानसिक स्वास्थ्य तथा व्यसनों के क्षेत्र में हाल के एक आलेख में सुस्थापित एवं आशाजनक वृत्तियों के लिए APA की सूची पर चर्चा की गई है और उनकी एक बड़ी संख्या को सक्रिय एवं प्रतिवादी अनुकूलन के सिद्धांतों पर आधारित पाया गया है।[40] इस अभिगम से बहुमूल्यांकन तकनीक विकसित हुई है जिसमें शामिल है कार्यात्मक विश्लेषण (मनोविज्ञान), जिसने शाखा प्रणाली पर अत्यधिक बल डाला है। इसके अतिरिक्त बहु-हस्तक्षेप कार्यक्रम भी इसी परंपरा से निकले हैं जिसमें शामिल हैं व्यसनों के उपचार हेतु सामुदायिक सुदृढ़ीकरण अभिगम, स्वीकरण एवं प्रतिबद्धता उपचार विधि, द्वंद्वात्मक व्यवहार उपचार विधि एवं व्यावहारात्मक उत्प्रेरण सहित कार्यात्मक विश्लेषणात्मक मनोचिकित्सा. साथ ही, आकस्मिकता प्रबंधन तथा संपर्क उपचार विधि जैसी विशिष्ट तकनीक भी इसी परंपरा से निकली हैं।

व्यवस्था अथवा पारिवारिक उपचार
मुख्य लेख : परिवार उपचार
व्यवस्था अथवा पारिवारिक उपचार दंपत्तियों एवं परिवारों के लिए प्रयुक्त होता है और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के संदर्भ में पारिवारिक संबंधों पर एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में बल देता है। यह मूल रूप से अंतर्वैयक्तिक गतिकी पर, खासकर इस तथ्य पर बल देता है कि एक व्यक्ति के अन्दर होने वाला परिवर्तन किस प्रकार संपूर्ण व्यवस्था को प्रभावित करता है।[41] इसलिए उपचार विधि को इस प्रकार संपन्न किया जाता है कि इसके अंतर्गत “व्यवस्था” के अधिकाधिक महत्वपूर्ण सदस्य शामिल हो सकें. इसके उद्देश्य हैं परस्पर संचार में सुधार, स्वास्थ्यपूर्ण भूमिकाओं की स्थापना, वैकल्पिक आख्यानों का निर्माण, तथा समस्यामूलक व्यवहारों का निबटारा. इस क्षेत्र में योगदान देने वालों में जॉन गॉटमैन (John Gottman), जे हेली (Jay Haley), स्यू जॉन्सन (Sue Johnson) तथा वर्जीनिया सैटर (Virginia Satir) शामिल हैं।

अन्य प्रमुख उपचारात्मक अभिविन्यास
इन्हें भी देखें: मनश्चिकित्सा का तालिका
मनोचिकित्सा के दर्जनों स्वीकृत शाखाएं अथवा अभिविन्यास हैं। नीचे दी गई सूची ऐसे कुछ प्रभावशाली अभिविन्यासों को प्रदशित करती है जिनका ऊपर नहीं किया गया है। यद्यपि, उन सब में चिकित्सकों द्वारा कुछ लाक्षणिक तकनीकों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें उपचार विधि का ढांचा और चिकित्सक को अपने मरीज़ के साथ काम करने हेतु निर्देशक के रूप में दर्शन उपलब्ध कराने के लिए अधिक जाना जाता है।

अस्तित्वपरक (Existential) –अस्तित्वपरक मनोचिकित्सा यह प्रतिपादित करता है कि लोग इन बातों में व्यापक रूप से स्वतंत्र होते हैं- “मैं कौन हूं” और “मुझे दुनिया की व्याख्या किस रूप में करनी है और उसके साथ किस प्रकार की अंतर्क्रिया करनी है”. इसका उद्देश्य जीवन का अधिक गहरा अर्थ समझने तथा जीवन से संबंधित उत्तरदायित्वों को स्वीकार करने में रोगी की मदद करना है। इसी तरह, यह जीवन के मौलिक विषयों को उठाता है जैसे कि मृत्यु, एकाकीपन और स्वतंत्रता. चिकित्सक द्वारा रोगी के आत्मसजग होने, वर्तमान परिस्थितियों में स्वतंत्र रूप से फैसले लेने, व्यक्तिगत पहचान एवं सामाजिक संबंध स्थापित करने, जीवन का अर्थ खोजने और इसकी स्वाभाविक दुश्चिंताओं से निपटने पर बल दिया जाता है।[42] अस्तित्वपरक चिकित्सा विधि के महत्वपूर्ण लेखकों में रोलो मे (Rollo May), विक्टर फ्रैंक (Victor Frankl), जेम्स ब्युगेंटल (James Bugental) और इरविन यैलोम (Irvin Yalom) शामिल हैं।
एक प्रभावी उपचार विधि जो अस्तित्वपरक उपचार विधि से विकसित हुई है गेस्टाल्ट उपचार विधि है जो मूल रूप से फ्रिट्ज पर्ल्स (Fritz Perls) द्वारा 1950 में स्थापित की गई थी। यह विभिन्न प्रकारों के आत्म उदबोधन को बढ़ावा देने के लिए तैयार की गई तकनीकों के लिए सुविख्यात है। इन तकनीकों में संभवत: सबसे प्रसिद्ध है “खाली कुर्सी तकनीक” जिसका उद्देश्य आमतौर पर “प्रामाणिक संपर्क” के अवरोध की खोज करना, अंतर्द्वंद्वों को सुलझाना तथा “अधूरे कार्य” को पूर्ण करने में रोगी की मदद करना है।[43]

उत्तर आधुनिक (Postmodern) –उत्तर आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार वास्तविकता का अनुभव एक व्यक्तिनिष्ठ ढांचा है जो भाषा, सामाजिक संदर्भ तथा इतिहास पर आधारित होता है।[44] इसमें कोई मूल सत्य नहीं होता. क्योंकि “मानसिक रोग” और “मानसिक स्वास्थ्य” को वस्तुनिष्ठ तथा परिभाषित सत्य के रूप में मान्यता नहीं मिली है, उत्तर आधुनिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा उपचार-विधि के लक्ष्य को, सख्त रूप में, एक ऐसी चीज़ के रूप में देखते हैं जिसका निर्माण रोगी और चिकित्सक- दोनों के द्वारा किया जाता है।[45] उत्तर आधुनिक मनोचिकित्सा के रूपों में शामिल हैं आख्यान उपचार विधि, समाधान केन्द्रित उपचार विधि और सामंजस्य उपचार विधि.
अंतर्वैयक्तिक (Transpersonal) –अंतर्वैयक्तिक परिप्रेक्ष्य मानवीय अनुभव के आध्यात्मिक पहलू पर व्यापक बल देता है।[46] यह तकनीकों के एक समूह से अधिक रोगी को आध्यात्मिकता और/अथवा चेतना की उच्चतर अवस्थाओं के अन्वेषण हेतु सहायता करने की उत्सुकता है। इसकी चिंताओं में यह भी शामिल है कि व्यक्ति को उसकी उच्चतम क्षमता हासिल करने में सहायता की जाए. इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण लेखकों में केन विल्बर (Ken Wilber), अब्राहम मैस्लो (Abraham Maslow), स्टैनिस्लाव ग्रोफ (Stanislav Grof), जॉन वेलवुड (John Welwood), डेविड ब्रेज़ियर (David Brazier) तथा रोबर्टो असैगियोली (Roberto Assagioli) शामिल हैं।
अन्य परिप्रेक्ष्य
बहु-संस्कृतिवाद (Multiculturalism) –यद्यपि, मनोविज्ञान के सैद्धांतिक आधार की मूल यूरोपियन संस्कृति में निहित हैं, अब यह माना जाने लगा है कि विभिन्न सांस्कृतिक और सामाजिक समूहों के बीच गहरा अंतर होता है और मनोचिकित्सा की प्रणालियों के लिए यह आवश्यक है कि इन अंतरों को ध्यान में रखा जाए.[34] साथ ही प्रवासियों के आव्रजन के बाद तैयार होने वाली नई पीढ़ियों में दो या अधिक संस्कृतियों का सम्मिलन पाया जाएगा- कुछ कारक माता-पिता से और कुछ परिवेशी समाज से उन्हें मिलेंगे और समेकन की यह प्रक्रिया उपचार विधि में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है (यह स्वयं भी समस्या का निर्माण कर सकती है). परिवर्तन, सहयोग प्राप्ति, नियंत्रण, प्राधिकार और व्यक्ति बनाम समूह के महत्व के बारे में विचारों को संस्कृति प्रभावित करती है। इन सब का टकराव मुख्य धारा की मनोचिकित्सीय उपचार सिद्धांत और क्रिया के कुछ तत्वों के साथ हो सकता है।[47] इसी तरह चिकित्सीय कार्य को सांस्कृतिक रूप से अधिक संवेदी और प्रभावशाली तरीके से करने के लिए विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बारे में जानकारियों के समेकन का अभियान भी जोर पकड़ रहा है।[48]
नारीवाद (Feminism) –नारीवादी उपचार विधि का विकास अधिकतर मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के मूल (जिनके प्रवर्तक पुरुष थे) और मनोचिकित्सीय परामर्श को इच्छुक अधिकतर व्यक्तियों के स्त्री होने के बीच असंगति के कारण हुआ। यह विधि परामर्श की प्रक्रिया में सामने आने वाले मुद्दों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक कारणों तथा उनके समाधान पर केन्द्रित है। यह दुनिया भर में मनोवैज्ञानिक समाधान चाहने वाले व्यक्तियों को अधिक सामाजिक और राजनैतिक तरीके से भागीदारी करने को प्रोत्साहित करती है।[49]
सकारात्मक मनोविज्ञान (Positive psychology) –सकारात्मक मनोविज्ञान मनुष्य की खुशियों और उसके कल्याण का वैज्ञानिक अध्ययन है जो 1998 में APA के तात्कालीन अध्यक्ष[50] मार्टिन सेलिग्मैन (Martin Seligman) के आह्वान के परिणामस्वरूप विकसित हुआ। मनोविज्ञान का इतिहास दर्शाता है कि यह क्षेत्र आरंभ में मानसिक स्वास्थ्य के बजाए मानसिक रोग के बारे में विचार करने को समर्पित था। अनुप्रयुक्त सकारात्मक मनोविज्ञान का ध्यान मुख्यत: जीवन के बारे में लोगों के सकारात्मक अनुभव को बढ़ाने और भविष्य के बारे में आशावादी नजरिए को विकसित कर उनकी क्षमता में वृद्धि करने, वर्तमान के बारे में प्रवाहशीलता का भाव जगाने तथा साहस, अध्यवसाय एवं परोपकारिता जैसे व्यक्तिगत गुणों को विकसित करने पर केन्द्रित है।[51][52] अब यह दर्शाने के लिए प्राथमिक अनुभवसिद्ध प्रमाण उपलब्ध हैं कि सेलिग्मैन द्वारा प्रतिपादित खुशहाली के तीन तत्वों- सकारात्मक मनोभाव (आनन्दपूर्ण जीवन), व्यस्तता (व्यस्त जीवन) तथा सार्थकता (सार्थक जीवन) को व्यवहार में लाकर सकारात्मक उपचार विधि चिकित्सीय अवसाद में कमी ला सकती है।[53]
एकीकरण
मुख्य लेख : इंट्रीगेटीव साइकोथेरपी
पिछले दो दशकों के दौरान, खासकर सांस्कृतिक, लैंगिक, आध्यात्मिक तथा यौनविषयक ज्ञान में वृद्धि के साथ विभिन्न चिकित्सीय अभिगमों के एकीकरण के अभियान ने जोर पकड़ा है। चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक प्रत्येक अनुकूलन की विभिन्न खूबियों और खामियों पर विचार करने लगे हैं और साथ ही तंत्रिका विज्ञान, सुजननकी, उद्विकासीय जीव विज्ञान और मन:औषधी विज्ञान जैसे संबंधित क्षेत्रों मं भी कार्य करने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप विभिन्नदर्शनग्रहण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है और साथ ही मनोवैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न प्रणालियों और उपचार विधियों की सर्वोत्तम प्रभावी तरीकों का ज्ञान प्राप्त किया जाने लगा है, जिसका उद्देश्य है किसी भी समस्या के लिए सर्वोत्त्म समाधान प्रस्तुत करना.[54]

पेशागत आचार संहिता

इस article में दिये उदाहरण एवं इसका परिप्रेक्ष्य मुख्य रूप से the United States का दृष्टिकोण दिखाते हैं और इसकावैश्विक दृष्टिकोण नहीं दिखाते। कृपया इस लेख को बेहतर बनाएँ और वार्ता पृष्ठ पर इसके बारे में चर्चा करें।
चिकित्सीय मनोविज्ञान को अनेक देशों में आचार संहिता द्वारा कठोरतापूर्वक नियंत्रित किया जाता है। अमेरिका में पेशागत आचारशास्त्र व्यापक रूप से APA की आचार संहिता द्वारा परिभाषित किया जाता है। इसका प्रयोग प्राय: राज्यों द्वारा अनुज्ञप्ति की आवश्यकताओं को निरूपित करने हेतु किय जाता है। APA संहिता द्वारा, आमतौर पर कानून द्वारा, आवश्यक मापदंड की तुलना में उच्चतर मापदंड तय किया जाता है क्योंकि इसे दायित्वपूर्ण व्यवहार, रोगी की सुरक्षा और व्यक्तियों, संगठनों और समाज के सुधार हेतु तैयार किया गया है।[55] यह संहिता शोध एवं अनुप्रयोग के क्षेत्र में कार्यरत सभी मनोवैज्ञानिकों पर लागू होती है।

APA संहिता 5 सिद्धांतों पर आधारित है: उपकारिता और गैर-हानिकारिता, ईमानदारी और उत्तरदायित्व, सत्यनिष्ठा, न्याय एवं मानव के अधिकार और गरिमा का सम्मान.[55] विषद तत्वों द्वारा नैतिक मुद्दे, सुयोग्यता, मानवी संबंध, निजता और गोपनीयत, प्रचार, अभिलेखन, शुल्क, प्रशिक्षण, शोध, प्रकाशन मूल्यांकन और उपचार विधि के बारे में बताया जाता है।

अन्य मानसिक स्वास्थ्य के पेशों के साथ तुलना
इसे भी देखें : मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर
मनोरोग

फ्लूक्सेनटाइन हाइड्रोक्लोराइड मनोचिकित्सकों द्वारा निर्धारित एक आम प्रत्यवसादक औषधि है जिसे लिली ने प्रोज़ैक का नाम दिया है। मनोवैज्ञानिकों को योग्य करने के लिए कम लेकिन बढ़ती हुई मात्रा में औषधपत्र विशेषाधिकार दिया जाता है।
यद्यपि, चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक के बारे में यह कहा जा सकता है कि दोनों का ही समान मौलिक उद्देश्य है मानसिक अवसाद का निवारण, किंतु उनके प्रशिक्षण, दृष्टिकोण तथा प्रक्रिया-विज्ञान प्राय: भिन्न होते हैं। शायद सबसे महत्वपूर्ण भिन्नता यह है कि मनोचिकित्सक अनुज्ञप्ति प्राप्त चिकित्सक होते हैं। इसी तरह मनोचिकित्सक प्राय: मानसिक समस्याओं के लिए चिकित्सीय मॉडल का प्रयोग करते हैं (अर्थात् जिनका वे उपचार करते हैं उन्हें रोगग्रस्त मरीज माना जाता है) – यद्यपि बहुत से मनोचिकित्सक मानसिक उपचार विधि का भी सहारा लेते हैं।[56] मनोचिकित्सक और औषधि मनोवैज्ञानिक (ये भी चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक होते हैं किंतु इन्हें नुस्खा लिखने का अधिकार होता है) शारीरिक परीक्षण करने, प्रयोगशाला परीक्षणों एवं EEG करवाने की सलाह देने और व्याख्या करने तथा CT अथवा CAT, MRI और PET स्कैनिंग करवाने की सलाह देने में सक्षम होते हैं।

चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक प्राय: दवा नहीं लिखते, यद्यपि मनोवैज्ञानिकों के लिए सीमित मात्रा में दवा लिखने के अधिकार के लिए आन्दोलन जोर पकड़ रहा है।[57] इन औषधीय विशेषाधिकारों के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण और शिक्षा आवश्यक है। वर्तमान में औषधि मनोवैज्ञानिकों को गुआम, न्यू मैक्सिको और लुसियाना राज्यों में मनोअनुवर्ती औषधयन की सलाह देने का अधिकार रखते हैं, साथ ही कुछ सैन्य मनोवैज्ञानिकों को भी यह अधिकार है।[58]

परामर्श मनोविज्ञान
परामर्श मनोवैज्ञानिक मानसिक उपचार विधि और मूल्यांकन सहित उन्हीं हस्तक्षेप-प्रक्रियाओं एवं विधियों का अध्ययन और प्रयोग करते हैं जो चिकित्सकीय मनोवैज्ञानिकों द्वारा किया जाता है। पारम्परिक रूप से परामर्श मनोचिकित्सक लोगों को सामान्य अथवा हल्का मानी जाने वाली मनोवैज्ञानिक समस्याओं में सहायता करते हैं। इस तरह की समस्याओं के उदाहरण है दुश्चिंता अथवा अवसाद जो प्राय: जीवन में घटे किन्हीं बड़े परिवर्तनों अथवा घटनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं।[3][10] अनेक परामर्श मनोवैज्ञानिकों द्वारा कॉरियर मूल्यांकन, सामूहिक उपचार विधि एवं संबंध परामर्श का विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया गया होता है, यद्यपि कुछ परामर्श मनोवैज्ञानिक ऐसी गंभीर समस्याओं पर भी कार्य करते हैं जिनके लिए औषधीय मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षित होते हैं। मनोभ्रम (dementia) अथवा मनोविक्षिप्ति (psychosis) इस प्रकार की समस्याओं के उदाहरण हैं।

औषधीय मनोविज्ञान की तुलना में परामर्श मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए स्नातक कार्यक्रमों की संख्या कम है और साथ ही उन्हें मनोविज्ञान के बजाए शिक्षा विभागों में चलाया जाता है। दोनों पेशे समान प्रकार की व्यवस्थाओं में उपयोगी हो सकते हैं, किंतु मनोचिकित्सक के अस्पतालों और व्यक्तिगत चिकित्सा व्यवसाय में कार्यरत होने की तुलना में परामर्श मनोवैज्ञानिक की नियुक्ति की संभावना विश्वविद्यालय के परामर्श केन्द्रों में अधिक होती है।[59] दोनों क्षेत्रों के बीच अनेक बातों में महत्वपूर्ण समानताएं हैं और उनके बीच के अंतर लगातार धूमिल पड़ते जा रहे हैं।

विद्यालय मनोविज्ञान
विद्यालय मनोवैज्ञानिक मुख्य रूप से शैक्षिक परिवेश में बच्चों एवं किशोरों के अकादमिक, समाजिक और भावनात्मक कल्याण के लिए कार्य करते हैं। यू॰के॰ में उन्हें “शैक्षणिक मनोवैज्ञानिक” कहते हैं। औषधि मनोवैज्ञानिकों एवं परामर्श मनोवैज्ञानिकों की भांति डॉक्टोरल डिग्रियों के साथ विद्यालय मनोचिकित्सक स्वास्थ्य सेवा मनोवैज्ञानिक के रूप में अधिकृत होते हैं तथा बहुत से विद्यालय मनोचिकित्सक अपना निजी प्रैक्टिस करते हैं। औषधि मनोवैज्ञनिकों के विपरीत वे शिक्षा, बाल विकास और व्यवहार तथा सीखने की प्रक्रिया से संबंधित मनोविज्ञान के बारे में अधिक प्रशिक्षित होते हैं। सामान्य डिग्रियों में शामिल हैं शैक्षणिक विशेषज्ञता की डिग्री (Ed.S.), डॉक्टर ऑफ फिलॉसॉफी (Ph.D.) तथा डॉक्टर ऑफ एज़ुकेशन (Ed.D.).

विद्यालयी व्यवस्था में नियुक्त विद्यालय मनोचिकित्सक के पारंपरिक कार्य विद्यालय में विशेष शिक्षा सेवाओं हेतु योग्यता निर्धारण के लिए छात्रों के मूल्यांकन तथा छात्रों के लिए मध्यस्थता की रूप-रेखा तैयार करने और मध्यस्थता करने हेतु शिक्षकों एवं विद्यालय के अन्य कर्मियों के साथ परामर्श पर केन्द्रित होता है। इनकी अन्य मुख्य भूमिकाओं में शामिल हैं बच्चों और उनके परिवार के लिए वैयक्तिक एवं सामूहिक उपचार विधि का प्रयोग करना, मध्यस्थता कार्यक्रम (उदाहरण के लिए, स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ने के बारे में) तैयार करना, स्कूल कार्यक्रमों का मूल्यांकन करना एवं शिक्षकों तथा विद्यालय प्रशासकों के साथ मिलकर महत्तम शैक्षणिक दक्षता हेतु कार्य करना.[60][61]

चिकित्सीय सामाजिक कार्य
सामाजिक कार्यकर्ता विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करते हैं जो प्राय: सामाजिक समस्याओं, उनके करणों और उनके समाधानों से संबंधित होते हैं। विशेष प्रशिक्षण प्राप्त कर चिकित्सीय सामाजिक कार्यकर्ता भी पारंपरिक समाज कार्य करने के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक परामर्श उपलब्ध कराने में सक्षम हो सकते है (जैसा अमेरिका और कनाडा में किया जा रहा है). अमेरिका में, समाज कार्य में स्नातकोत्तर कार्यक्रम दो वर्षीय तथा 60 क्रेडिट वाला होता है जिसमें कम से कम एक वर्ष प्रायोगिक होता है (चिकित्साकर्मियों के लिए दो वर्ष).[62]

उपजीविका उपचार विधि
उपजीविका उपचार विधि जिसे संक्षेप में प्राय: OT कहा जाता है, “उत्पादक अथवा रचनात्मक क्रियाकलाप को शारीरिक, संज्ञानात्मक अथवा भावनात्मक रूप से अक्षम व्यक्तियों के उपचार अथवा पुनर्वास हेतु प्रयोग करने की विधि है”.[63] पेशेवर मनोचिकित्सक शारीरिक-मानसिक अक्षमता से ग्रस्त व्यक्तियों के साथ कार्य कर उन्हें उनकी दक्षता और क्षमता के महत्तम उपयोग करने में मदद करते हैं। पेशेवर मानसिक चिकित्सक ऐसे दक्ष चिकित्सक होते हैं जिनकी शिक्षा में रोग और क्षति के शारीरिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक सांस्कृतिक, संज्ञानात्मक एवं पर्यावरणीय घटकों पर विशेष बल देते हुए मानवीय वृद्धि और विकास का अध्ययन शामिल है। वे समान्य रूप से आंतरिक रोगी तथ बाह्य रोगी मानसिक स्वास्थ्य, पीड़ा प्रबन्धन चिकित्सालयों, भोजन संबंधी गड़बड़ियों हेतु चिकित्सालय तथा बाल विकास सेवाओं जैसी व्यवस्थाओं में औषधि मनोवैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम करते हैं। मानसिक रोग के लक्षणों का पता लगाने तथा जीवन के क्रियाकलापों में क्रियाशीलता को महत्तम स्तर तक बढ़ाने के लिए OT के प्रयोग द्वारा समूहों तथा व्यक्तियों के परामर्श सत्र एवं क्रियाकलाप आधारित अभिगम की मदद की जाती है।

आलोचना और विवाद
चिकित्सा मनोविज्ञान एक विभिन्नतापूर्ण क्षेत्र है और इस बात को लेकर बार-बार विवाद होता रहता है कि अनुभव सिद्ध शोध द्वारा सहायता प्रदत्त उपचारों के लिए चिकित्सीय कार्य किस स्तर तक सीमित होना चाहिए.[64] सभी मुख्य चिकित्सीय विधियां समान प्रभावशीलता के लिए हैं- इस तथ्य को दर्शाने वाले कुछ प्रमाणों के बावजूद चिकित्सीय मनोविज्ञान में प्रयुक्त होने वाले उपचार के विभिन्न रूपों की दक्षता के बारे में बहुत अधिक विवाद पाया जाता है।[65][66][67]

इस बात की सूचना मिली है कि चिकित्सीय मनोविज्ञान ने स्वयं को शायद ही रोगी समूहों के साथ संबद्ध किया है और उन व्यापक आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक असमानताओं के मुद्दों को नजरअंदाज करने के लिए इसकी प्रवृत्ति समस्याओं को वैयक्तिक बनाने की होती है जो रोगी की जिम्मेदरी नहीं होती.[64] इस बात को लेकर बहस है कि उपचारात्मक कार्यवृत्ति अनिवार्य रूप से शक्ति में असमानताओं से सीमाबद्ध होती है जिसका उपयोग अच्छे और बुरे दोनों के लिए किया जा सकता है।[68] एक आलोचनात्मक मनोवैज्ञानिक आन्दोलन ने इस बात पर जोर दिया है कि चिकित्सीय मनोविज्ञान तथा अन्य व्यवसाय जो मनोवैज्ञानिक संकुल ("psy complex") का निर्माण करते हैं, प्राय: असमानताओं तथा क्षमता में अंतर पर ध्यान देने में प्राय: असफल रहे हैं किंतु ये चाहें तो असुविधा, विपथन और अशांति के सामाजिक और नैतिक नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।[69][70]

नेचर पत्रिका के अक्टूबर 2009 अंक के संपादकीय में यह बताया गया है कि अमेरिका में बड़ी संख्या में चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक वैज्ञानिक प्रमाण को “अपने व्यक्तिगत चिकित्सीय अनुभव के तुलना में महत्वहीन नहीं मानते हैं”.

3. संज्ञानात्मक मनोविज्ञान (Cognitive psychology)

संज्ञानात्मक मनोविज्ञान

संज्ञानात्मक मानोविज्ञान ध्यान, भाषा का उपयोग करना, स्मृति, धारणा, समस्या को हल करना और सोच आदि मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन है। संज्ञानात्मक मानोविज्ञान के बहुत से काम मानोविज्ञानिक अध्ययन के विभिन्न अन्य आधुनिक विषयों में एकीकृत किये गए हैं- सामाजिक मानोविज्ञान, व्यक्तित्व मानोविज्ञान, असामान्य मानोविज्ञान, विकासात्मक मनोविज्ञान, शिक्षा मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र।


संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के उपयोग
विकृत मनोविज्ञान
संज्ञानात्मक क्रांति के बाद और संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कई सिद्धांतिक खोजों के परिणाम के रूप में, संज्ञानात्मक उपचार का अनुशासन विकसित हुआ। हारून टी. बेक आम तौर पर संज्ञानात्मक उपचार के पिता के रूप में माने जाते हैं। अवसाद की पहचान और उपचार के क्षेत्र में उनके काम ने दुनिया भर में काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। १९८७ में प्रकशित अपनी पुस्तक "अवसाद के संज्ञानात्मक थेरेपी" में बेक ने तर्क के रूप में तीन प्रमुख बिन्दुओं को रखा है जिसमें वे 'केवल औषधी' वाले दृष्टिकोण की जगह अवसाद का इलाज चिकित्सा या चिकित्सा और अवसादरोधी दवाओं से करने की बात कहते हैं।

(१) अवसादरोधी दवाओं के प्रचलित उपयोग के बावजूद, सत्य तो यह है कि सभी रोगी उसका सकारात्मक प्रत्युत्तर नहीं देते। बेक कहते हैं (१९८७ में) कि ६० से ६५ % रोगी ही अवसादरोधी दवाओं का सकारात्मक असर दिखाते हैं, और आधुनिक समय में मोटे तौर पर किये गये विश्लेषण (कई अध्ययनों का एक सांख्यिकीय विश्लेषण करने के बाद) भी इसी प्रकार के नतीजे दिखाता है।
(२) अवसादरोधी दवाओं का जवाब जो लोग सकारात्मक रीति से देते हैं उनमें से कई लोग भिन्न-भिन्न कारणों से दवा लेना बन्द कर देते हैं। उनका ऐसा करने का कारण या तो दवा के अन्य प्रभाव, या फिर व्यक्तिगत आपत्ति हो सकता है।
(३) बेक कहते हैं कि नशीली दवाएँ अंत में रोगी के मुकाबला करने की अन्तरिम शक्ति के टूटने का कारण हो सकती है। उनका सिद्धांत हैं कि यह मूड में सुधार लाने के लिये रोगी को दवाओं पर निर्भर करा देती है और आम तौर पर अवसादग्रस्तता के लक्षणों के प्रभाव को कम करने के लिए रोगी उन तकनीकियों का अभ्यास करने में विफल रहता है जो स्वास्थ व्यक्त्तियों द्वारा इन लक्षणों से बाहर आने में अभ्यास की जाती है। विफल होने के पश्चात्‌ यदि एक बार रोगी अवसादरोधी को बन्द कर देता है, तो अक्सर उदास मन के सामान्य स्तर से निपटने के लिए और अवसादरोधी दवाओं का उपयोग बहाल करने के लिए प्रेरित महसूस करने में असमर्थ रहता है।[1]
सामाजिक मनोविज्ञान
आधुनिक सामाजिक मनोविज्ञान के कई पहलुओं की जड़ें संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में किये गयें शोध में है। सामाजिक अनुभूति संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का एक उप-श्रेणी है जो संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के तरीकों पर विशेष ध्यान देता है। खासकर जब इसे मानव आचार-संहिता पर लागू करते हैं। गॉर्डन बी मोस्कोवित्ज़ सामाजिक अनुभूति को इस प्रकार परिभाषित करते हैं " ..., मानसिक प्रक्रियाओं का वह अध्यन्न जो हमारी सामाजिक दुनिया में लोगों को समझने, मिलने, याद रखने, सोचने और मतलब निकालने में उपयोग में आती है"।

कई सामाजिक सूचना संसाधन के मॉडल (एस आई पी) का विकास आक्रामक और असामाजिक व्यवहार के अध्यन्न में प्रभावशाली रहा है। केनेथ डोज का सिप मॉडल उनमें एक है जो आक्रामकता से संबंधित अधिकांश अनुभवों में एक समर्थित मॉडल है। अपनी शोध में डोज कह्ते हैं कि वे बच्चे जिनमें सामाजिक जानकारी का मूल्यांकन करने की अधिक क्षमता होती है अक्सर उच्च स्थितिय स्वीकृत सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। उनका मॉडल बताता है कि पांच चरण हैं जिनमें हो कर एक व्यक्ति गुज़रता है जब वह अन्य व्यक्तियों के साथ बातचीत (व्यवहार) का मूल्यांकन करता है और वह व्यक्ति उन संकेतों की व्याख्या कैसे करता है, यह प्रतिक्रियावादी प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है।

संज्ञानात्मक विज्ञान बनाम संज्ञानात्मक मनोविज्ञान
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान और संज्ञानात्मक विज्ञान के बीच की रेखा काफी धुँधली हो सकती है। दोनों के बीच का फर्क संज्ञानात्मक असामान्य के 'लागू मनोविज्ञान' के संबंध के संदर्भ में बेहतर, समझा जा सकता है एवं उनके मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को भी समझा जा सकता है। संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक अक्सर उन मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में जुटे हैं जिनमें उनका लक्ष्य यह जानना है कि मानव प्रतिभागियों के मन बाहरी दुनिया से कैसे जानकारी लेते हैं, उनका अवलोकन करते है और उस प्राप्त जानकारी पर प्रक्रिया प्रदशि॔त करते हैं। इस जानकारी को अक्सर नैदानिक ​​मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है। इस तरह से व्युत्पन्न संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का एक मानदंड यह है कि हर एक व्यक्ति एक स्कीमेता विकसित करता है जो उसे विशेष परिस्थितियों में या उनका सामना करने के लिये खास तरह से सोचने या अमल करने के लिए प्रेरित करती है। उदाहरण के लिए, ज्यादातर लोगों को कतार में इंतजार करने का स्कीमा है। किसी भी सेवा के लिये जहां लोगखिड़की पर कतार में खड़े हैं, आगन्तुक अनायास आकर सबसे आगे खड़ा नहीं होता। किंतु उस परिस्थिति में उनका स्कीमा उन्हें बताता है कि वे कतार में सबके पीछे जाकर खड़े हों। कभी कभी कोई व्यक्ति एक दोषपूर्ण स्कीमेता विकसित कर लेता है जो उसे लगातार एक बेकार ढंग से प्रतिक्रिया करने के लिए बाध्य करता है। इस प्रकार के परिणामों को असामान्य या विकृत मनोविज्ञान के क्षेत्र में माना जाता है। यदि किसी व्यक्ति में यह स्कीमा है कि वह केह्ता है कि " मैं दोस्त बनाने में अच्छा नहीं हूँ ", तो वह पारस्परिक संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए इतना अनिच्छुक हो सकता है कि उसे 'तन्हाई में रेहने की आदत' का खतरा हो सकता है।

















पत्र लेखन

पत्र लेखन

पत्र लेखन
मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते अपने जन्म से मृत्यु पर्यंत अपने भावों और विचारों को दूसरों तक संप्रेषित करता है। आदि काल में मनुष्य ढोल बजाकर चिल्ला कर या आग जलाकर अपने संदेश अपने मित्रों या परिचितों तक पहुंचाता था। आज का युग सूचना क्रांति का युग है, संदेश संप्रेषण के कई साधन आज हमारे पास उपलब्ध है। इन अत्याधुनिक साधनों को अपनाते हुए भी पत्र का महत्व है।
कई बार वह अपने स्वजनों को बधाई वह शुभकामना प्रेषण के लिए पत्र लिखता है, तो कई बार रोजगार के लिए आवेदन पत्र लिखता है। कभी किसी कार्य के न हो पाने पर शिकायती पत्र या सरकारी कामकाजों के संपादन के लिए भी एक कर्मचारी को नित्य प्रति कई प्रकार के पत्र लिखने होते हैं। इसी कारण संदेश प्रेषण के कितने ही अत्याधुनिक विकल्प उपस्थित होने के बावजूद पत्र लेखन का आज भी अपना महत्व है, लेकिन वास्तव में पत्र लेखन भी एक कला है।
अच्छे पत्र की विशेषताएं
एक अच्छे एवं प्रभावी पत्र में निम्नलिखित विशेषता होती है-
1. सरलता:-
एक अच्छे पत्र की भाषा सरल होनी चाहिए जिससे कि प्राप्तकर्ता को संदेश सरलता से संप्रेषित हो सकें उसमें कठिन भाषा में नहीं होनी चाहिए।
2. स्पष्टता:-
एक अच्छे पत्रिका प्रमुख गुण स्पष्टता होता है। पत्र लेखक को अपनी बात इतनी स्पष्ट लिखनी चाहिए कि प्राप्तकर्ता आपके संदेश को स्पष्ट रुप से ग्रहण करें।
3. संक्षिप्तता:-
पत्र में संक्षिप्तता का गुण भी होता है। पत्र लेखक को अपनी बात कम शब्दों में पूरी करने का प्रयास करना चाहिए। कई बार हम एक ही बात को अलग-अलग शब्दों में पुनः लिखते जाते हैं। इस वृत्ति से हमें बचना चाहिए।
4. क्रमबद्धता:-
पत्र लेखक को अपने पत्र लेखन में क्रमबद्धता का भी ध्यान रखना चाहिए। जब एक ही पत्र में एकाधिक बातें लिखी जाने हो तब पहले महत्वपूर्ण बातों को लिखते हुए फिर सामान्य बातों की और बढ़ना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि एक बार जब लिखना प्रारंभ करें तब उसे पूरी तरह पूर्ण करने के बाद ही दूसरे विषय पर लिखना आरंभ करना चाहिए।
5. संपूर्णता:-
पत्र लेखक को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह जो-जो संदेश संप्रेषित करना चाहता है, वह सब उसने उस पत्र में समाहित कर दिए हो कोई भी विषय या बात लिखने से नहीं रह जाए।
6. प्रभावशीलता:-
पत्र ऐसा होना चाहिए, कि वह पाठक या प्राप्त करता पर अपना प्रभाव छोड़े। इसके लिए पत्र लेखक को प्रभावी भाषा के साथ-साथ प्रभावी शैली को अपनाना चाहिए।
7. बाह्य सज्जा:-
उपयुक्त विशेषताओं के साथ बाह्य सज्जा का भी पत्र लेखन मैं अपना महत्व होता है। इस हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।
(1) कागज अच्छे किस्म का हो।
(2) लिखावट सुंदर व स्पष्ट हो।
(3) वर्तनी की त्रुटियां न हो।
(4) विराम चिह्नों का उचित प्रयोग।
(5) तिथि, अभिवादन, अनुच्छेद का उचित प्रयोग आदि।

1. व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्र:-
किसी व्यक्ति द्वारा जब अपने परिवारजनों या मित्रों को कोई पत्र लिखा जाता है तो उसे व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्र कहते हैं। पिता माता या मित्र को पत्र बधाई पत्र निमंत्रण पत्र और संवेदना पत्र व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्रों की श्रेणी में आते हैं।

2. कार्यालयी पत्र
वह पत्र जो किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा किसी अन्य अधिकारी या कर्मचारी को किसी विशेष राजकीय कार्य को करने या जानकारी देने हेतु लिखे जाते हैं, वह कार्यालय या सरकारी पत्र कहलाते हैं।
जैसे:- सामान्य सरकारी पत्र, परिपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक, विज्ञप्ति, कार्यालय आदेश, ज्ञापन, निविदा आदि।

3. व्यावसायिक पत्र
किसी व्यावसायिक संस्था द्वारा किसी अन्य व्यावसायिक संस्था को व्यावसायिक कार्य हेतु लिखा गया पत्र व्यावसायिक पत्र कहलाता है। इस प्रकार के पत्र द्वारा व्यवसायिक पूछताछ मूल्य जानकारी सामान क्रय विक्रय पहुंच आदि के विषय में पत्राचार किया जाता है।

Friday, 30 March 2018

English essay on "A Busy Street"

A Busy Street

Lakshmi Street in Pune has got to be one of the busiest street, if not the busiest, in India. To be in it just once is to know the meaning of the word "busy".
I happened to be in it a few days before the Hindu New Year. On both sides of the street were hawkers with all sorts of goods for sale. Fruits, cakes, fireworks, food and other things were displayed openly for people to come and buy. The five-foot ways were not big enough, so the hawkers and their customers actually spilled into the narrow street itself making it a hazardous place for drivers and motorcyclists. Every few seconds a horn sounded as the vehicles crawled cautiously among the throng.

There were so many people there that if I had not been with my father I would probably have got lost. My father knew his way around. So I held on tightly to his hand as he led me through the crowd. A number of times I nearly knocked into someone, or rather, someone nearly knocked into me. Everyone seemed to be in a rush and nobody seemed to care whether they trampled on another.

We were there to buy some cakes for the New Year. At the shop we had to wait a long time before we could pay for what we wanted. The shop was crowded with other shoppers.

After our purchase, we made our way carefully out of the street. Once outside, the air felt so much fresher. Though we had to walk some distance to our car, it was so much more pleasant than walking among the crowd of frenzied shoppers along the busy street. 













Hindi essay on most 3 days

स्वतंत्रता दिवस 

प्रस्तावना - सदियों की गुलामी के पश्चात 15 अगस्त सन् 1947 के दिन आजाद हुआ। पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे। उनके बढ़ते हुए अत्याचारों से सारे भारतवासी त्रस्त हो गए और तब विद्रोह की ज्वाला भड़की और देश के अनेक वीरों ने प्राणों की बाजी लगाई, गोलियां खाईं और अंतत: आजादी पाकर ही चैन ‍लिया। इस दिन हमारा देश आजाद हुआ, इसलिए इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं।


अंग्रेजों के अत्याचारों और अमानवीय व्यवहारों से त्रस्त भारतीय जनता एकजुट हो इससे छुटकारा पाने हेतु कृतसंकल्प हो गई। सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद ने क्रांति की आग फैलाई और अपने प्राणों की आहुति दी। तत्पश्चात सरदार वल्लभभाई पटेल, गांधीजी, नेहरूजी ने सत्य, अहिंसा और बिना हथियारों की लड़ाई लड़ी। सत्याग्रह आंदोलन किए, लाठियां खाईं, कई बार जेल गए और अंग्रेजों को हमारा देश छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिया। इस तरह 15 अगस्त 1947 का दिन हमारे लिए 'स्वर्णिम दिन' बना। हम, हमारा देश स्वतंत्र हो गए।

यह दिन 1947 से आज तक हम बड़े उत्साह और प्रसन्नता के साथ मनाते चले आ रहे हैं। इस दिन सभी विद्यालयों, सरकारी कार्यालयों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है, राष्ट्रगीत गाया जाता है और इन सभी महापुरुषों, शहीदों को श्रद्धांजल‍ि दी जाती है जिन्होंने स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न किए। मिठाइयां बांटी जाती हैं।

हमारी राजधानी दिल्ली में हमारे प्रधानमंत्री लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं। वहां यह त्योहार बड़ी धूमधाम और भव्यता के साथ मनाया जाता है। सभी शहीदों को श्रद्धां‍जलि दी जाती है। प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम संदेश देते हैं। अनेक सभाओं और कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।

उपसंहार - इस दिन का ऐतिहासिक महत्व है। इस दिन की याद आते ही उन शहीदों के प्रति श्रद्धा से मस्तक अपने आप ही झुक जाता है जिन्होंने स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने प्राणों की आहु‍ति दी। इसलिए हमारा पुनीत कर्तव्य है कि हम हमारे स्वतंत्रता की रक्षा करें। देश का नाम विश्व में रोशन हो, ऐसा कार्य करें। देश की प्रगति के साधक बनें न‍ कि बाधक।

घूस, जमाखोरी, कालाबाजारी को देश से समाप्त करें। भारत के नागरिक होने के नाते स्वतंत्रता का न तो स्वयं दुरुपयोग करें और न दूसरों को करने दें। एकता की भावना से रहें और अलगाव, आंतरिक कलह से बचें। हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस का बड़ा महत्व है। हमें अच्‍छे कार्य करना है और देश को आगे बढ़ाना है।

शिक्षक दिवस

गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है। जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता, क्योंकि वे ही हमें इस रंगीन खूबसूरत दुनिया में लाते हैं। कहा जाता है कि जीवन के सबसे पहले गुरु हमारे माता-पिता होते हैं। भारत में प्राचीन समय से ही गुरु व शिक्षक परंपरा चली आ रही है, लेकिन जीने का असली सलीका हमें शिक्षक ही सिखाते हैं। सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
प्रतिवर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म-दिवस के अवसर पर शिक्षकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारतभर में शिक्षक दिवस 5 सितंबर को मनाया जाता है। 'गुरु' का हर किसी के जीवन में बहुत महत्व होता है। समाज में भी उनका अपना एक विशिष्ट स्थान होता है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षा में बहुत विश्वास रखते थे। वे एक महान दार्शनिक और शिक्षक थे। उन्हें अध्यापन से गहरा प्रेम था। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है।
इस दिन स्कूलों में पढ़ाई बंद रहती है। स्कूलों में उत्सव, धन्यवाद और स्मरण की गतिविधियां होती हैं। बच्चे व शिक्षक दोनों ही सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते हैं। स्कूल-कॉलेज सहित अलग-अलग संस्थाओं में शिक्षक दिवस पर विविध कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। छात्र विभिन्न तरह से अपने गुरुओं का सम्मान करते हैं, तो वहीं शिक्षक गुरु-शिष्य परंपरा को कायम रखने का संकल्प लेते हैं।
स्कूल और कॉलेज में पूरे दिन उत्सव-सा माहौल रहता है। दिनभर रंगारंग कार्यक्रम और सम्मान का दौर चलता है। इस दिन डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को उनकी जयंती पर याद कर मनाया जाता है।
गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है जिसके कई स्वर्णिम उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं।
शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को अलग अलग रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को कांटों पर भी मुस्कुराकर चलने के लिए प्रेरित करता है। आज शिक्षा को हर घर तक पहुंचाने के लिए तमाम सरकारी प्रयास किए जा रहे हैं। शिक्षकों को भी वह सम्मान मिलना चाहिए जिसके वे हकदार हैं। एक गुरु ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है।
आज तमाम शिक्षक अपने ज्ञान की बोली लगाने लगे हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरु-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं।
इसे देखकर हमारी संस्कृति की इस अमूल्य गुरु-शिष्य परंपरा पर प्रश्नचिह्न नजर आने लगता है। विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों का ही दायित्व है कि वे इस महान परंपरा को बेहतर ढंग से समझें और एक अच्छे समाज के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान करें।

बाल दिवस

14 नवंबर को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन होता है। इसे बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था और बच्चे उन्हें चाचा नेहरू पुकारते थे।
बाल दिवस बच्चों को समर्पित भारत का राष्ट्रीय त्योहार है। देश की आजादी में भी नेहरू का बड़ा योगदान था।
प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश का उचित मार्गदर्शन किया था। बाल दिवस बच्चों के लिए महत्वपूर्ण दिन होता है। इस दिन स्कूली बच्चे बहुत खुश दिखाई देते हैं। वे सज-धज कर विद्यालय जाते हैं। विद्यालयों में बच्चे विशेष कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
वे अपने चाचा नेहरू को प्रेम से स्मरण करते हैं। बाल मेले में बच्चे अपनी बनाई हुई वस्तुओं की प्रदर्शनी लगाते हैं। इसमें बच्चे अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। नृत्य, गान, नाटक आदि प्रस्तुत किए जाते हैं। नुक्कड़ नाटकों के द्वारा आम लोगों को शिक्षा का महत्व बताया जाता है।
बच्चे देश का भविष्य हैं। इसलिए हमें सभी बच्चों की शिक्षा की तरफ ध्यान देना चाहिए। बच्चों के रहन-सहन के स्तर ऊंचा उठाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। इन्हें स्वस्थ, निर्भीक और योग्य नागरिक बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह बाल दिवस का संदेश है।
बाल दिवस के अवसर पर केंद्र तथा राज्य सरकार बच्चों के भविष्य के लिए कई कार्यक्रमों की घोषणा करती है।
बाल श्रम रोधी कानूनों को सही मायनों में पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। अनेक कानून बने होने के बावजूद बाल श्रमिकों की संख्‍या में वर्ष दर वर्ष वृद्धि होती जा रही है। इन बच्चों का सही स्थान कल-कारखानों में नहीं बल्कि स्कूल है।

Pollution hindi essay

प्रदूषण : एक गंभीर समस्या

प्रस्तावना : विज्ञान के इस युग में मानव को जहां कुछ वरदान मिले है, वहां कुछ अभिशाप भी मिले हैं। प्रदूषण एक ऐसा अभिशाप हैं जो विज्ञान की कोख में से जन्मा हैं और जिसे सहने के लिए अधिकांश जनता मजबूर हैं।
प्रदूषण का अर्थ : प्रदूषण का अर्थ है -प्राकृतिक संतुलन में दोष पैदा होना! न शुद्ध वायु मिलना, न शुद्ध जल मिलना, न शुद्ध खाद्य मिलना, न शांत वातावरण मिलना !
प्रदूषण कई प्रकार का होता है! प्रमुख प्रदूषण हैं - वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण !
वायु-प्रदूषण : महानगरों में यह प्रदूषण अधिक फैला है। वहां चौबीसों घंटे कल-कारखानों का धुआं, मोटर-वाहनों का काला धुआं इस तरह फैल गया है कि स्वस्थ वायु में सांस लेना दूभर हो गया है। मुंबई की महिलाएं धोए हुए वस्त्र छत से उतारने जाती है तो उन पर काले-काले कण जमे हुए पाती है। ये कण सांस के साथ मनुष्य के फेफड़ों में चले जाते हैं और असाध्य रोगों को जन्म देते हैं! यह समस्या वहां अधिक होती हैं जहां सघन आबादी होती है, वृक्षों का अभाव होता है और वातावरण तंग होता है।
जल-प्रदूषण : कल-कारखानों का दूषित जल नदी-नालों में मिलकर भयंकर जल-प्रदूषण पैदा करता है। बाढ़ के समय तो कारखानों का दुर्गंधित जल सब नाली-नालों में घुल मिल जाता है। इससे अनेक बीमारियां पैदा होती है।

ध्वनि-प्रदूषण : मनुष्य को रहने के लिए शांत वातावरण चाहिए। परन्तु आजकल कल-कारखानों का शोर, यातायात का शोर, मोटर-गाड़ियों की चिल्ल-पों, लाउड स्पीकरों की कर्णभेदक ध्वनि ने बहरेपन और तनाव को जन्म दिया है।
प्रदूषणों के दुष्परिणाम: उपर्युक्त प्रदूषणों के कारण मानव के स्वस्थ जीवन को खतरा पैदा हो गया है। खुली हवा में लम्बी सांस लेने तक को तरस गया है आदमी। गंदे जल के कारण कई बीमारियां फसलों में चली जाती हैं जो मनुष्य के शरीर में पहुंचकर घातक बीमारियां पैदा करती हैं। भोपाल गैस कारखाने से रिसी गैस के कारण हजारों लोग मर गए, कितने ही अपंग हो गए। पर्यावरण-प्रदूषण के कारण न समय पर वर्षा आती है, न सर्दी-गर्मी का चक्र ठीक चलता है। सुखा, बाढ़, ओला आदि प्राकृतिक प्रकोपों का कारण भी प्रदूषण है।

प्रदूषण के कारण : प्रदूषण को बढ़ाने में कल-कारखाने, वैज्ञानिक साधनों का अधिक उपयोग, फ्रिज, कूलर, वातानुकूलन, ऊर्जा संयंत्र आदि दोषी हैं। प्राकृतिक संतुलन का बिगड़ना भी मुख्य कारण है। वृक्षों को अंधा-धुंध काटने से मौसम का चक्र बिगड़ा है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में हरियाली न होने से भी प्रदूषण बढ़ा है।
सुधार के उपाय : विभिन्न प्रकार के प्रदूषण से बचने के लिए चाहिए कि अधिक से अधिक पेड़ लगाए जाएं, हरियाली की मात्रा अधिक हो। सड़कों के किनारे घने वृक्ष हों। आबादी वाले क्षेत्र खुले हों, हवादार हों, हरियाली से ओतप्रोत हों। कल-कारखानों को आबादी से दूर रखना चाहिए और उनसे निकले प्रदूषित मल को नष्ट करने के उपाय सोचना चाहिए।

Hindi essay on Effects of Green House Gas

ग्रीन हाउस गैस के प्रभाव

कार्बन डॉईऑक्साइड : हरित गृह (ग्रीन हाउस) गैसों में कार्बन डाईऑक्साइड सबसे प्रमुख गैस है जो आमतौर से जीवाश्म ईधनों के जलने से उत्सर्जित होती है। वातावरण में यह गैस 0.5 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 1 है।
जैव ईधनों के जलने से प्रति वर्ष 5 बिलियन टन से भी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड का जुड़ाव वातावरण में होता है जिसमें उत्तरी तथा मध्य अमेरिका, एशिया, यूरोप तथा मध्य एशियन गणतंत्रों का योगदान 90 प्रतिशत से भी ज्यादा का होता है। पूर्व-औद्योगीकरण काल की तुलना में वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर आज 31 प्रतिशत तक बढ़ गया है। चूंकि वन कार्बन डाईऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं अतः वन-विनाश भी इस गैस की वातावरण में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण है।
वातावरण में 20 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड जुड़ाव के लिए वन विनाश जिम्मेदार है। वन-विनाश के फलस्वरूप 1850 से 1950 के बीच लगभग 120 बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का वातावरण में जुड़ाव हुआ है। पिछले 100 वर्षों में कार्बन डाईऑक्साइड की वातावरण में 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।
वर्ष 1880 से 1890 के बीच कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा लगभग 290 पीपीएम (पार्ट्स ऑफ पर मिलियन), वर्ष 1980 में इसकी मात्रा 315 पीपीएम, वर्ष 1990 में 340 पीपीएम तथा वर्ष 2000 में 400 पीपीएम तक बढ़ गई है। ऐसी संभावना है कि वर्ष 2040 तक वातावरण में इस गैस की सान्द्रता 450 पीपीएम तक बढ़ जाएगी। कार्बन डाईऑक्साइड का वैश्विक तपन वृद्धि में 55 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकृत विकसित देश वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड वृद्धि के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।

मिथेन गैस: मिथेन  भी एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हरितगृह गैस है जो 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। मिथेन की तपन क्षमता 36 है। यह गैस कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में 20 गुना ज्यादा प्रभावी होती है। पिछले 100 वर्षों में वातावरण में मिथेन की दोगुनी वृद्धि हुई है। धान के खेत, दलदली भूमि तथा अन्य प्रकार की नम भूमियां मिथेन गैस के उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत हैं।
एक अनुमान के अनुसार वातावरण में 20 प्रतिशत मीथेन की वृद्धि का कारण धान की खेती तथा 6 प्रतिशत कोयला खनन है। इसके अतिरिक्त, शाकभक्षी पशुओं तथा दीमकों में आंतरिक किण्वन (एन्टरिक फरमेन्टेशन) भी मिथेन उत्सर्जन के स्रोत हैं। वर्ष 1750 की तुलना में मिथेन की मात्रा में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक मिथेन एक प्रमुख हरितगृह गैस होगी। इस गैस का वैश्विक तपन में 20 प्रतिशत का योगदान है। विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में मिथेन उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स: क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायन भी हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी होते हैं। क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायनों का इस्तेमाल आमतौर से प्रशीतक, उत्प्रेरक तथा ठोस प्लास्टिक झाग के रूप में होता है। इस समूह के रसायन वातावरण में काफी स्थायी होते हैं और यह दो प्रकार के होते हैं- हाइड्रो फ्लोरो कार्बन तथा पर फ्लोरो कार्बन। हाइड्रो फ्लोरो कार्बन की वातावरण में वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है तथा इसकी तपन क्षमता 14600 है। पर फ्लोरो कार्बन की भी वार्षिक वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है जबकि इसकी तपन क्षमता 17000 है।
हाइड्रो फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 6 प्रतिशत का योगदान है जबकि पर फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 12 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की वातावरण में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। अतः विकासशील देशों की तुलना में औद्योगीकृत विकसित देश क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
नाइट्रस ऑक्साइड: नाइट्रस ऑक्साइड गैस 0.3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 140 है। जैव ईधन, जीवाश्म ईधन तथा रासायनिक खादों का कृषि में अंधाधुंध प्रयोग इसके उत्सर्जन के प्रमुख कारक हैं। मृदा में रासायनिक खादों पर सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप नाइट्रस ऑक्साइड का निर्माण होता है तत्पश्चात् यह गैस वातावरण में उत्सर्जित होती है।

वातावरण में इस गैस की वृद्धि के लिए 70 से 80 प्रतिशत तक रासायनिक खाद तथा 20 से 30 प्रतिशत तक जीवाश्म ईंधन जिम्मेदार हैं। इस गैस का वैश्विक तपन में 5 प्रतिशत का योगदान है। नाइट्रस ऑक्साइड समतापमण्डलीय ओजोन पट्टी के क्षरण के लिए भी उत्तरदायी है। ओजोन पट्टी क्षरण से भी वैश्विक तपन में वृद्धि होगी।
ओजोन: क्षोभमण्डलीय ओजोन भी एक महत्वपूर्ण हरित गृह गैस है जो वातावरण में 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। इस गैस की तपन क्षमता 430 है। ओजोन का निर्माण आमतौर से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन्स की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है। ओजोन गैस का वैश्विक तपन में 2 प्रतिशत का योगदान है।

वैश्विक स्तर पर हरित गृह गैसों का उत्सर्जन:
जहां तक हरित गृह गैसों के उत्सर्जन का सवाल है, वैश्विक स्तर पर भारत मात्र 1.2 टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष :हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका प्रति वर्ष 20 टन से भी अधिक प्रति व्यक्ति हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। रूस 11.71 टन, जापान 9.87, यूरोपीय संघ 9.4 तथा चीन 3.6 प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करते हैं।
अतः विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश हरित गृह गैसों का ज्यादा उत्सर्जन करते हैं जिसका खामियाजा भारत सहित दुनिया के अन्य विकासशील देशों को भुगतना होगा।