रामकृष्ण परमहंस
पश्चिम बंगाल में हुगली तालुके में कामार नाम के गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था । इसी ब्राह्मण परिवार में 18 फरवरी, 1836 को एक तेजस्वी बालक ने जन्म लिया ।तब कौन कह सकता था कि उस साधारण ब्राह्यण परिवार में जन्मा वह बालक एक दिन संसार भर में अध्यात्म गुरु के रूप में जाना जाएगा । बालक का नाम गदाधर रखा गया । पांच वर्ष की अल्पायु में ही बालक गदाधर की प्रखर बुद्धि और स्मृति ने सबको अचम्भित कर दिया ।
गदाधर अपने पूर्वजों की नामावली को धाराप्रवाह बखान करते तो सब लोग दांतों तले उंगली दबा लेते । रामायण गीता और महाभारत जैसे ग्रंथ भी गदाधर को कंठस्थ थे । उनकी विद्वत्ता देखकर उन्हें कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) शहर में यज्ञ हवनादि कार्य करने के लिए कहा गया ।
उस समय कलकत्ता में रानी रासमणि नाम की एक उदार भगवद्भक्त धनी स्त्री रहती थी । कई मंदिर और धर्मस्थानों का निर्माण कर चुकी रानी रासमणि ने दक्षिणेश्वर में काली मां का एक भव्य और विशाल मंदिर बनवाया । यही मंदिर गदाधर जी की साधना-स्थली बना ।
इसी मंदिर में आध्यात्मिक साधना का अवसर मिला तो युवा गदाधर ने अनन्य भाव से माता जगदम्बा की आराधना की । वह स्वयं माता को अपने हाथों से भले लगाते । उनके हृदय में कोई इच्छा तो थी ही नहीं । अन्य पुजारियों की भांति वह मां के सुमिरन में धन, ऐश्वर्य या भौतिक साधनों की इच्छा नहीं करते थे ।
उनकी तो सिर्फ एक ही इच्छा थी कि माता भगवती उन्हें साक्षात रूप में दर्शन दें । वह बहुत देर तक माता के सामने बैठकर मां से विनती करते कि : “हे आनंदमयी जगद्जननी जगरूपा मुझ अज्ञानी को दर्शन देकर कृतार्थ करो । दर्शन बिना जीवन अधूरा है । मेरी यही एकमात्र अभिलाषा है मां ।”
इनके अंतर में दर्शन की अभिलाषा इतनी बढ़ गई कि यह व्याकुल हो उठे । इनका मन कहीं भी नहीं लगता था । एक दिन दर्शन विरह इतनी प्रबल हो गई कि इन्होंने अपना जीवन समाप्त करने का निश्चय किया । जब माता के दर्शन ही न हों तो ऐसे जीवन का क्या लाभ ! यही सोचकर इन्होंने अपना श्वास रोक लिया ।
तभी मंदिर का कण-कण दिव्य प्रकाश से नहा उठा । माता जगदम्बा अपने मनभावन तेजमय स्वरूप में साक्षात इनके सम्मुख थीं । गदाधर माता के चरणों में नतमस्तक हो गए । उसके बाद माता ने इन्हें कई बार दर्शन दिया । माता की कृपा से इन्हें तत्त्वज्ञान हो गया ।
तत्पश्चात इन्होंने संन्यासी तोतापुरीजी से संन्यास की दीक्षा ली और उन्होंने ही इन्हें ‘रामकृष्ण परमहंस’ का नाम दिया । माता की कृपा से परमहंस का मन अन्य सभी कार्यों से विरक्त हो गया । अब भगवान के भिन्न स्वरूपों के दर्शन पाने की इच्छा से इन्होंने भगवान राम की उपासना की ।
इन्हें श्रीराम और माता सीता के साक्षात दर्शन का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ । सन् 1862 ई. में श्री परमहंस ने एक महायोगिनी तपस्विनी के मार्गदर्शन में तंत्र-मंत्र की कठिन साधना की । परमहंस प्रेम-पंथ की चरमसीमा पर पहुंच गए थे । अब वे ब्रह्म के अद्वैत साक्षात्कार के अधिकारी बन गए थे ।
जब इनकी भक्ति शिखर पर पहुच गई तौ मा जगदम्बा ने ब्रह्मज्ञान के महारहस्य की दीक्षा देने हेतु वेदांत के प्रकाड विद्वान को भेजा । उनकी कृपा से यह भगवान के सर्वरूपों में समाहित हो गए और छह माह की कठिन साधना-समाधि में लीन हो गए ।
इस समाधि के बाद परमहंस को माता जगदम्बिका का साध्य प्राप्त हो गया । अब माता स्वयं साकार होकर उनके हाथों से भोग ग्रहण करतीं और वे एक बालक की भांति मां को भोग लगाकर प्रसन्न होते । इनके पास कितने ही साधकों ने साधना-सिद्धि की ।
इनके शिष्यों में नरेन्द्रनाथ सर्वगुणसम्पन्न और सच्चे साधक थे । उनकी दृढ़ता और जिज्ञासा अपार थी । परमहंस ने नरेन्द्रनाथ को ही अपने उद्देश्य का उत्तराधिकारी नियुक्त किया । यही नरेन्द्रनाथ आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से विश्वविख्यात हुए ।
रामकृष्ण परमहंस ने मां दुर्गा में ही भगवान के दर्शन कर लिए थे । उनका मूर्ति में ही सजीव भाव था । बताते हैं कि एक बार मां की मूर्ति खंडित हो गई थी तो वे बहुत रोए थे और उन्होंने मूर्ति की खंडित टांगों को स्वयं चिपकाया था आज भी वह मूर्ति दक्षिणेश्वर में विराजमान है ।
अत में इन्हें गले का कैंसर हो गया और एक वर्ष पश्चात 15 अगस्त, 1886 को इन्होंने महासमाधि ले ली और ब्रह्मलीन हो गए । परमहंसजी अध्यात्म के तत्त्वद्रष्टा युगद्रष्टा थे । वह भारत की प्राचीन संस्कृति पर अटूट श्रद्धा रखते थे । हिन्दू धर्म और आर्य संस्कृति के महान आदर्शों को प्रकट करते हुए उस छोटे से बालक गदाधर ने रामकृष्ण परमहंस के रूप में अपना जीवन सार्थक कर दिखाया ।
क्षत्रपति शिवाजी
क्षत्रपति शिवाजी इतिहास पुरुष हैं । भारत के इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है । वो महावीर होने के साथ-साथ महान गुरु भक्त भी थे ।यह सच हें कि यदि किसी के व्यक्तित्व में शुद्ध सोने-सा निखार आता है तो उसके पीछे किसी पारसमणि का हाथ अवश्य है शिवाजी के जीवन में वो पारसमणि थे समर्थ गुरु रामदास । विरक्तों-सा जीवन-जीने वाले बाबा रामदास देखने में जितने साधारण थे उनकी अंतरआत्मा में परमज्ञान की उतनी विलक्षण ज्योति प्रज्वलित थी ।
उन्होंने ‘दासबोध’ जैसे महान ग्रंथ की रचना करके अपने विलक्षण ज्ञान का परिचय दिया । जब गुरु रामदास की शिवाजी से भेंट हुई तो उन्हें उस मानवप्रतिमा में सोई पड़ी प्रबल ऊर्जा का आभास हुआ उन्होने शिवा को आपने शिष्य स्वीकार किया । इस प्रकार एक समर्थ गुरु की देखरेख में उनकी शिक्षा आरंभ हुई ।
बालक शिवा पूर्ण लगन के साथ द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान का अमृत पान करने लगा । दासबोध ग्रंथ में वर्णित दिव्य दिव्य ज्ञान का प्रसाद भी शिवाजी को मिला । गुरु ने अपनी दूरदृष्टि से जान लिया था कि शिवा को शास्त्र ज्ञान के अलवा शस्त्र ज्ञान की भी आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए शिवाजी को शस्त्र संचालन का ज्ञान भी दिया जाने लगा ।
अपनी एकाग्रता और गुरु पर पूर्ण श्रद्धा रखने के कारण शिवाजी ने शीघ्र ही शास्त्रों और शस्त्रो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया लेकिन फिर भी शिवा की जिज्ञासा शांत न होती थी और शिवाजी की उसी जिज्ञासा के कारण गुरु भी अपना सम्पूर्ण ज्ञान अपने शिष्य में अड़ेल देना चाहते थे ।
गुरु रामदास को अपने योग्य शिष्य शिवा जी की निष्ठा पर कोई संदेह तो नहीं था फिर भी वो शिवा की एक परीक्षा लेना चाहते थे । एक सुबह उन्होने अपने सभी शिष्यों को पुकारा और कहा कि अब कुछ दिन वो उन्हें शिक्षा न दे सकेंगे क्योंकि उनके पांव में एक भयंकर फोड़ा उग आया है ।
जो पकने के कारण भीषण पीड़ा दे रहा है । गुरु रामदास के पांव में पट्टी बंधी थी । पांव फूला-फूला और भयंकर-सा दिखाई दे रहा था । कुछ शिष्य तो इतने डर गए कि रोने लगे कुछ ने मुंह फेर लिया और कुछ ने साहस करके गुरु से पूछा : ”आप तो सामर्थवान हैं गुरुदेव इस फोड़े से छुटकारा पाने का कोड तो उपाय अवश्य जानते होंगे ।”
गुरु ने एक आह भरी और कहा : ”नहीं वत्स इसका कोई उपाय मैं जानता होता तो अवश्य ही इससे छटकारा पा चुका होता । लगता है ये मेरे द्वारा पूर्व जन्म में किए गए किसी अपराध का फल है ।” ”गुरुदेव! क्या हम आपकी कोई सहायता कर सकते हैं ।” शिवा ने उत्सुकता से पूछा : ”हां-हां गुरुदेव हमें भी बताइए हम आपका कष्ट दूर करने का पूर्ण प्रयत्न करेंगे ।” अन्य शिष्य भी आगे बढ़कर बोले ।
गुरु रामदास बोले : ”हाँ वत्स एक उपाय तो है परंतु वह बहुत मुश्किल है । उसे मैं बताना तो नहीं चाहता था परतु तुम सब जब इतना पूछ रहे हो तो बताता हूं । यदि इस फोड़े का मवाद कोई अपने मुख से खींच कर निकाल दे तो मुझे निश्चित ही आराम मिल सकता है ।”
गुरु ने शिष्यों के आग्रह पर पीड़ा से छुटकारा पाने का उपाय बताया । अब उनकी नजर सहायता के लिए अपने शिष्यों पर थी । सभी शिष्य एक दूसरे का मुख ताक रहे थे किसी से कोई उत्तर देते न बन रहा था । गुरु ने पुन : पूछा : ”क्या तुममें से कोई मुझे पीड़ा से मुक्ति दिला सकता है या फिर मैं विश्राम के लिए चला जाऊँ ।”
”मैं दिलाऊंगा आपको पीड़ा से मुक्ति । मैं अपने मुख से खींच कर निकालूंगा आपको पीड़ा देने वाला ये मवाद ।” शिवा ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़कर कहा । गुरु रामदास को शिवा से ऐसी ही आशा थी उन्होंने तुरंत अपना पाव आगे किया और फोड़े से थोड़ी-सी पट्टी हटाकर शिवा से कहा : ”लो वत्स अब देर न करो मुझे असहनीय पीड़ा हो रही है ।”
शिवा ने आंख मुंदकर ईश्वर से प्रार्थना की और गुरु के चरण स्पर्श करके उस घाव में अपना मुख लगा दिया । ये क्या उस फोड़े पर मुख लगाते ही शिवा हैरान रह गया वो मवाद नहीं आम का रस था । उसके गुरु ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए एक पके आम को अपने पैर पर बाध लिया था ।
शिवा ने आश्चर्य भरी दृष्टि से जब गुरु की ओर देखा तो उनकी आखों से प्रेमाश्रु छलक रहे थे उन्होंने शिवा को अपने हृदय से लगा लिया और कहा : ”वत्स तूने मेरी दी हुई शिक्षा को सार्थक कर दिया, मैं तुझे अशीर्वाद देता हूं कि इस नश्वर संसार में तेरी कीर्ति अमर हो जाएगी, तेरा नाम इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगा ।”
गुरु का आशीर्वाद शिवाजी के जीवन में फलीभूत हुआ उनमें निर्भीकता अन्याय से मुकाबला करने की क्षमता और संगठनात्मक योगदान का विकास गुरु की कृपा से ही आया । शिवाजी ने अन्याय के विरुद्ध लड़ने का फैसला किया उनके नेतृत्व में जो लड़ता वो साक्षात शिव का रूप नजर आता था । उनके सधे हुए आक्रमणों से शत्रु थर्रा उठता था ।
शिवाजी के युद्ध का उद्देश्य रक्तपात नहीं अन्याय का अत करके शांति स्थापित करना था जिसमें उन्हें इच्छित सफलता प्राप्त हुई और वो शिवा से छत्रपति शिवाजी बन गए । अब शिवाजी सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य के एक मात्र अधिपति थे ।
शिवाजी की विजय यात्रा की सूचना यदा-कदा उनके गुरु के कानों तक पहुंचती रहती थी । एक बार उनके गुरु भिक्षा लेने उनके साम्राज्य में पहुंचे और भिक्षा के लिए आवाज लगाई । चिरपरिचित आवाज सुनकर शिवाजी आदोलित हो गए वो सब काम छोड्कर द्वार पर पहुंचे और गुरु के चरणों में गिर पड़े । गुरु रामदास ने उन्हें उठाया और कहा:
”शिवा! अब तू मेरा शिष्य नहीं एक सम्राट है मैं तो भिक्षा की आशा लेकर यहा आया था क्या मुझे कुछ भिक्षा मिलेगी ।” गुरु का आग्रह सुनकर एक पल को तो शिवाजी स्तब्ध रह गए । उन्हें लगा कि उनके गुरु ने उनकी किसी अंजानी भूल के कारण उनका त्याग तो नहीं कर दिया ।
”किस सोच में पड़ गए राजन”: गुरु रामदास ने पुन: कहा: ” क्या मुझे कुछ भिक्षा मिलेगी ।” गुरु की वाणी ने शिवाजी की तंद्रा भंग की । ”हां गुरुदेव मैं अभी आया”: शिवाजी तुरंत अपने कक्ष में गए और एक कागज का टुकड़ा लेकर लौटे और गुरु के भिक्षापात्र में डाल कर बोले: ”मैं आपको क्या दे सकता हूं ये सब कुछ तो आप ही का दिया हुआ है ।”
शिवाजी ने गुरु को प्राणाम किया, गुरु उन्हें आशीर्वाद देकर आगे बढ़ गए । कुटिया में आकर रामदास ने उस पर्चे को पड़ा । उसमें लिखा था : ‘सारा राज्य आपको समर्पित है’ और उसके नीचे राजमूहर भी अंकित थी । समर्थ गुरु रामदास ने अपने शिष्य की देन की सराहना की और ईश्वर का धान्यवाद किया कि उनकी शिक्षा में कोई त्रुटि नहीं रही ।
शिवाजी ने केवल अपने गुरु को एक पत्र में चन्द लाइनें ही नहीं लिखी थीं उन्होंने उसी दिन से अपने गुरु की खड़ाऊ को सिंहासन पर आसीन कर दिया और गुरु के भगवाध्वज को अपने राज्य का राज्य-चिन्ह बना दिया । उस काल की मुद्रा पर भी शिवाजी के गुरु समर्थगुरु रामदास का चित्र देखा जा सकता है ।
एक बार शिवाजी को औरंगजेब ने उनके पुत्र के साथ बंदी बना लिया । कुछ महीने वे औरंगजेब की कैद में रहने के बाद भाग निकले । बाद में जब उनके साथियों ने उनसे पूछा कि : ”महाराज आप औरंगजेब जैसे क्रूर राजा के कैद से कैसे निकल पाए” तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा : ”कैद में बराबर मुझे समर्थगुरु रामदास की छाया नजर आती थी ।
जब मैंने भागने की तैयारी कर ली तो लगा कि गुरुवर मेरे सामने खड़े हैं और कह रहे हैं : शिवा तू डर मत निकल जा । जब मैं वहा से मिठाई के टोकरे में छिपकर निकलने लगा तो मुझे लगा कि गुरुदेव मेरे साथ हैं । सारे-पहरेदारों की आखों पर जैसे पर्दा-सा पड़ गया और मैं बाहर निकल गया ।”
ये एक समर्थ गुरु के समर्थ शिष्य की कहानी है जो सदियों तक एक वैरागी गुरु और एक त्यागी शिष्य की याद दिलाती रहेगी । सच तो यह है कि जिसे गुरु कृपा प्राप्त हो जाती है उसके लिए ससार के सारे साधन सुलभ हो जाते हैं । आग का तपता दरिया भी उसके लिए शीतल हो जाता है ।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
प्रस्तावना : भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। प्रलोभन उसे कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते। उसका लक्ष्य उदार और उच्च होता है। उसका चरित्र अनुकरणीय होता है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ऐसी ही थीं वीरांगना लक्ष्मीबाई।परिचय : महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जानी जाती थीं।
विवाह : इधर सन् 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया। वे विधुर थे। सन् 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ। सन् 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया।
सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे।
यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगरेजी सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया।
संघर्ष : 27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंगरेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पोलेटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं।
यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। अंगरेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भभक उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्णावसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई।
नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे।
विद्रोह : भारत की जनता में विद्रोह की ज्वाला भभक गई। समस्त देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि 31 मई 1857 निश्चित की गई, लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और 7 मई 1857 को मेरठ में तथा 4 जून 1857 को कानपुर में, भीषण विप्लव हो गए। कानपुर तो 28 जून 1857 को पूर्ण स्वतंत्र हो गया। अंगरेजों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया।
उन्होंने सागर, गढ़कोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर अधिकार कियाऔर नृशंसतापूर्ण अत्याचार किए। फिर झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगा लिया।
लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। 23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंगरेजी सेना के छक्के छूट गए।
रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंगरेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया।
वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंगरेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं।
उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंगरेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया।
कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था।
उपसंहार : सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया।
No comments:
Post a Comment